ज्योतिष फलादेश के शुत्र
कुंडली में प्रथम पंचम और नवम भाव शुभ होते है इनके मालिक चाहे पापी ग्रह हो या शुभ ग्रह हमेशा शुभ फल दायी होते है। हालांकि उनकी प्लेसमेंट काफी मायने रखती है।
लग्नेश पंचमेश और भाग्येश उत्तरोत्तर अधिक शुभफलदायी होते है।
तृतीय षष्ठ और एकादश भाव अशुभ होते है इस प्रकार तृतीयेश षस्ठेश् और एककदेश अशुभ होते है।
तृतीय षष्ठ और एकादस उतरोतर अधिक अशुभफलदाई होते है।
द्वितीयेश और द्वादसेस साहचर्य के अनुसार शुभ अशुभ फल देते है।
अष्टमेश अशुभफल दाई होता है लेकिन लग्नेश हो तो अशुभफल्दाई नही रहता जैसे मेष में मंगल को अस्थमेस का दोष नही लगता।
केंद्र यानी पहला चौथा सातवां और दसम भाव के मालिक यदि शुभ ग्रह हो तो अशुभ फल दाई और पाप ग्रह हो तो शुभ फल दाई होते है। चूँकि पहला भाव त्रिकोण भी होता है तो उस पर ये नियम लागू नही होता।
राहु केतु केंद्र में किसी त्रिकोणेश के साथ हो या त्रिकोण में किसी केन्द्रेश के साथ हो तो शुभफलदायी होते है।
यदि कोई ग्रह लग्न कुंडली में उंच और नवमांश में नीच का हो तो उंच का फल न देकर सामान्य फल देता है । इसी प्रकार लग्न में नीच और नवमांश में उंच हो तो भी नीच का फल नही देता।
दूसरे और सप्तम भाव के मालिक प्रबल मारकेश माने जाते है।
यदि मारकेश अष्टमेश और त्रिष्ठयेश योगकारक ग्रह से सम्बन्ध बना रहे हो तो योगकारक ग्रह की महादशा में उनकी अंतर्दशा शुभ फल देती है।
त्रिकोणेश और केन्द्रेश का आपसी सम्बन्ध राजयोगकारक माना जाता है।
यदि केन्द्रेश और त्रिकोनेस का सम्बन्ध हो और उनकी दशा अंतर्दशा हो तो काफी शुभफक प्राप्त होते है। सम्बन्ध न होने पर शुभफल नही मिलते।
सम्बन्ध चार प्रकार के मुख्य होते है जैसे एक दूसरे की राशि में होना एक दूसरे को पूर्ण दृस्टि से देखना दोनों का एक साथ ही किसी भाव में होना और चौथा जब एक दूसरे की राशि में हो और दूसरा अपने भाव को पूर्ण दृस्टि से देख रहा हो।
पापी ग्रह की महादशा में उस से सम्बंधित योगकारक ग्रह की अंतर्दशा अत्यंत पाप फल देती है और सम्बंधित शुभ ग्रह की अंतर्दशा मिश्रित फल देती है।
फलादेश में शकुन शास्त्र और स्वरोदय शास्त्र की भी मुख्य भूमिका होती है उसका भी प्रयोग करना चाहिए।
गुरु शुक्र शुभग्रह युक्त बुद्ध और बलि चन्द्र ये शुभ ग्रह होते है।
सूर्य मंगल शनि पाप ग्रह युक्त बुद्ध छिन चन्द्र राहु केतु ये सब पाप ग्रह है। हालांकि सूर्य मंगल को पापी न मानकर क्रूर ज्यादा माना जाता है।
राहु केतु जिस भाव या भावेश के साथ हो वैसा ही शुभाशुभ फल देते है।
किसी भी ग्रह का फल उसकी दशा में ही मुख्य रूप से मिलता है।
कोई ग्रह नीच का हो और लग्न या चन्द्र लग्न से केंद्र में हो तो योगकारक बन जाता है।
त्रिक स्थानों 6 8 12 के स्वामी यदि इनमे से ही किसी भाव में हो या आपस में सम्बन्ध बनाते हो तो ये विपरीत राजयोग बन जाता है जो शुभफल दाई होता है।
यदि कोई भाव अपने स्वामी से युक्त या दृस्टि हो तो शुभफल देता है।
किसी भी भाव से दूसरे और बारवें भाव में शुभ ग्रह की सिथति से भाव शुभ फल दाई बन जाता है और पाप कतरी में होने पर अशुभ फल देता है।
जो ग्रह दो भावों का स्वामी हो तो उसकी मूलत्रिकोण राशि जिस भाव में होगी उसके ज्यादा फल और दूसरी राशि जिस भाव में होगी उसके न्यून फल जातक को मिलते है।
जिस ग्रह के अष्टक वर्ग में जिस भाव में बिंदु कम हो तो उस ग्रह की दशा में उस भाव सम्बन्धी शुभ फल नही प्राप्त होते।
कोई ग्रह कितना भी बलि हो यदि भाव संधि में हो तो फल देने में असमर्थ माना जाता है।
जन्मकुंडली चन्द्र कुंडली सूर्य कुंडली नवमांश और चलित कुंडली देखकर ही अंतिम निर्णय पर पहुंचना चाहिए। साथ ही आवशस्यक्तानुसार अन्य कुंडलियों जैसे दसमांश सप्तमांश आदि का भी प्रयोग करना चाहिए।
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