Thursday, December 29, 2016

कृष्णमूर्ति पद्धति में नक्षत्रों का सर्वाधिक महत्व

कृष्णमूर्ति पद्धति में नक्षत्रों का सर्वाधिक महत्व

इधर कुछ वर्षों से नक्षत्रों के अध्ययन की ओर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। इस दिशा में केएस कृष्णमूर्ति का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके अनुसार जिस ग्रह की दशा होती है, वह अपने आधिपत्य द्वारा जिन भावों का द्योतक होता है, उन भावों के द्वारा समस्या के मूल भावों को दर्शाता है और इससे आगे नहीं बढ़ता है। वह पूर्ण समस्या का समाधान नहीं करता है। कृष्णमूर्ति के अनुसार महत्व उस नक्षत्र का भी है जिसमें दशानाथ स्थित होता है। उस नक्षत्र का स्वामी जिन भावों का स्वामी होता है, समस्या उन भावों से संबंधित अधिक होती है।
मान लीजिए कि किसी जन्म कुंडली में सूर्य की दशा चल रही है, लग्न कर्क है और सूर्य तृतीय भाव में मंगल के नक्षत्र में स्थित है, तो घटनाएं मंगल के आधिपत्य द्वारा प्रकाशित होंगी। मंगल चूंकि कर्क लग्न वाले के लिए दशमेश और पंचमेश होता है, सूर्य अपनी दशा में मान (दशम भाव) तथा पुत्र (पंचम भाव) संबंधी घटनाओं को जन्म देगा। इसी प्रकार मान लीजिए कि किसी मकर लग्न वाले व्यक्ति की शुक्र की दशा चल रही है और वह शुक्र पंचम भाव में सूर्य के नक्षत्र में है तो शुक्र की दशा में घटनाएं सूर्य द्वारा प्रकट होंगी। सूर्य अष्टमेश है अत: अष्टम भाव से संबंध रखने वाली घटनाएं होंगी। जैसे- अपमान, रोग अथवा इंशोरेंस, नष्ट वस्तु की प्राप्ति आदि। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति की तुला लग्न है और सूर्य की दशा है और तृतीय भाव में शुक्र के नक्षत्र में स्थित है तो ऐसी स्थिति में फल अधिकतर शुक्र के आधिपत्य द्वारा व्यक्त होगा। शुक्र तुला लग्न वालों का लग्नेश और अष्टमेश होता है, इसलिए फल लग्न तथा अष्टम भाव से संबंधित होगा। जैसे धन, सम्मान की प्राप्ति, बीमारी आदि। यद्यपि नक्षत्र का स्वामी अपने आधिपत्य द्वारा घटना के स्वरूप को दिखला देगा परन्तु उसका परिणाम जातक के लिए शुभ होगा अथवा अशुभ, इस बात का निर्णय नक्षत्रांश का स्वामी करेगा। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि व्यक्ति का मकर लग्न है और सूर्य की दशा भुक्ति है और सूर्य धनु राशि में पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में स्थित है तो सूर्य स्पष्ट 8-15-0 है तो सूर्य के नक्षत्रांश में है और शुक्र का फल करेगा। अब शुक्र चूंकि मकर लग्न वालों के लिए योग कारक ग्रह है क्योंकि वह दशम केंद्र और पंचम त्रिकोण का स्वामी है, वह द्वादश संबंधी शुभ फल करेगा, यदि शुक्र कुंडली में बलवान है तो। 
इस पद्धति में प्रत्येक नक्षत्र के 9 भाग किए गए हैं, परन्तु वे आपस में बराबर नहीं हैं। उन भागों की मात्रा उस नक्षत्र के स्वामी पर निर्भर है। इसमें नक्षत्र को नौ भागों में ऐसे विभक्त किया गया है कि प्रत्येक भाग का अनुपात दूसरे भाग से वही हो जो उसकी दशा के वर्षों का दूसरे की दशा के वर्षों से हैं। उदाहरण के लिए सूर्य स्पष्ट 8-15-0 है तो इसका अर्थ यह हुआ कि पूर्वाषाढ़ का एक अंश 40 कला व्यतीत हुआ। यह नक्षत्र शुक्र का है। अत: इसमें पहला नक्षत्रांश भी शुक्र ही होगा। इस प्रकार जब सूर्य स्पष्ट 8-15-0 हो तो सूर्य, शुक्र के पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में हुआ और उसका नक्षत्रांश भी शुक्र का ही हुआ। अत: यदि शुक्र शुभ है तो सूर्य राजयोग का फल देगा, यद्यपि इसका आधिपत्य उत्तम नहीं है। इस प्रकार कृष्णमूर्ति पद्धति नक्षत्रांश के स्वामी द्वारा फल के अच्छा-बुरा होने का निर्णय करता है। 
एक और लाभ जो इस पद्धति में बताया जाता है, वह यह है कि ग्रह जिस नक्षत्र में बैठा है, उस नक्षत्र का स्वामी अपने आधिपत्य द्वारा कई बातों द्वारा घटनाओं के होने की ओर इशारा करेगा, नक्षत्रांश द्वारा एक घटना निश्चित हो जाएगी जिसे घटना है। इस प्रकार घटना विशेष का निर्णय भी इस पद्धति की विशेषता बतलाई गई है, उदाहरण के लिए मान लीजिए किसी व्यक्ति का जन्म मिथुन लग्न है और उसकी मंगल की दशा है और मंगल का स्पष्ट 4-14-0 है। मंगल ग्रह सिंह राशि में शुक्र के नक्षत्र में शुक्र के ही नक्षत्रांश बुध के साथ है। अत: यह एकादश भाव के कारण (जिसपर इसका आधिपत्य है) वाहन संबंधी लाभ पहुंचाएगा। यद्यपि मंगल भूमि, भवन भी दिला सकता था क्योंकि यह भूमि, मकान का कारक है, परन्तु यहां वह वाहन की प्राप्ति करवाएगा क्योंकि यह बुद्ध के साथ है और वाहन द्योतक ग्रह शुक्र के नक्षत्र में है। हां इतना अवश्य है कि शुक्र को बलवान होना चाहिए। इस प्रकार कृष्णमूर्ति पद्धति के अनुसार यदि कोई ग्रह ऐसे नक्षत्रांश में है जो कि शुभ है तो उसको सुख-सफलता की प्राप्ति होगी। इसका तात्पर्य यह है कि फल की शुभता या अशुभता का निर्णय नक्षत्रांश करता है। यदि जिस नक्षत्र में कोई ग्रह स्थित है, उसका स्वामी कुंडली में अपने आधिपत्य द्वारा शुभ की सूचना देता है परन्तु नक्षत्रांश का स्वामी यदि शुभ नहीं है तो फिर आशा के सिवा कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। ग्रह जिस राशि में स्थित होता है, वह राशि उस ग्रह के बलाबल के निर्णय में सहायक होती है। जैसे उच्च, मूल त्रिकोण, स्वक्षेत्र व मित्र क्षेत्र में बलवान होता है। यदि उस राशि का स्वामी भी बलवान हो जिसमें वह स्थित है तो और भी बलवान समझा जाएगा। इस पद्धति में नक्षत्रांश की सहायता से हम दो जुड़वा बच्चों के जीवन की विभिन्नता का दर्शन कर सकते हैं। इस दिशा में उनके दशम भाव के स्पष्ट का अध्ययन करना चाहिए। यद्यपि दोनों बच्चों का दशमाधिपति एक ही ग्रह होगा। दशम स्पष्ट के नक्षत्र का स्वामी भी एक ही ग्रह होगा परन्तु दोनों के नक्षत्रांशों के स्वामी भिन्न-भिन्न ग्रह होंगे, जिसके कारण दोनों बच्चों के कार्यों में भिन्नता आ जाएगी।
कृष्णमूर्ति पद्धति का तो यहां तक कहना है कि ग्रहों का फल इतना महत्व नहीं रखता है जितना कि उस नक्षत्र के स्वामी का है जिसमें कोई ग्रह स्थित है, जो नक्षत्रांश का विशेष स्वामी हुआ। गोचर के विषय में भी कृष्णमूर्ति पद्धति के अनुसार यदि कोई ग्रह किसी नक्षत्र से गुजर रहा है तो उस नक्षत्र का स्वामी ही इस बात का निर्णय करेगा कि फल कैसा हो। ग्रह तो केवल यह दर्शाएगा कि वह फल को कहां से प्राप्त करेगा। 
इस प्रकार ग्रहों के फल कहने में मुख्यतया कृष्णमूर्ति पद्धति तीन वस्तुओं का प्रयोग करती है-
1- राशि जिसमें ग्रह स्थित है और उसका स्वामी।
2- नक्षत्र जिसमें कोई ग्रह बैठा है और उसका स्वामी। 
3- नक्षत्रांश का स्वामी। 
उदाहरण के लिए यदि कोई मेष राशि के 15वें अंश में स्थित है तो इस स्थिति में राशि स्वामी मंगल होगा और नक्षत्रांश स्वामी शुक्र। अब इन गुण-दोषों को मिलाकर उक्त ग्रह स्थिति का फल कह सकेंगे। मंगल और शुक्र दोनों युवा ग्रह हैं, दोनों कामातुर हैं। अत: ऐसा व्यक्ति काम-वासना से बहुत पीडि़त होगा। मंगल उद्योग से संबंध रखता है और शुक्र का संबंध गाने-बजाने तथा सुंदरता से संबंधित वस्तुओं से है। अत: यह ग्रह स्थिति संगीत के उपकरणों का निर्माण अथवा सुंदरता बढ़ाने वाली वस्तुओं के उत्पादन का धंधा जाहिर करेगी। मंगल चूंकि एक आघात्मक ग्रह है और शुक्र का तथा मेष राशि का आंखों के ऊपर के भाग से संबंध है और शुक्र का शांति। इस कारण दोनों शारीरिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। अत: यह ग्रह स्थिति जातक को शारीरिक व्यायाम में लगाएगी। मंगल अग्नि रूप है और शुक्र सुख-विलास से संबंधित है, अत: सिगरेट आदि पीना इस युति से व्यक्त होगा। कुल मिलाकर यही बात है कि कृष्णमूर्ति पद्धति में नक्षत्रांश का महत्व सर्वोपरि है, राशि व नक्षत्र स्वामी से भी बढ़कर। 

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