कुण्डलिनी विज्ञान में मूलाधार को योनि और सहस्रार को लिंग कहा गया है। इन दोनों संयोग साधना को कामकला के रूप में निरूपित किया गया है। इसका वर्णन कतिपय स्थलों पर ऐसा प्रतीत होती है मानो यह कोई काम सेवन की चर्चा की जा रही है,पर बात ऐसी नहीं है। वर्णनों में काम क्रीड़ा एवं शृंगारिकता का काव्यमय वर्णन हो किया गया है, पर क्रिश्स प्रसंग में वैसा कुछ नहीं है। तन्त्र ग्रन्थों के उलटबांसियों की तरह ‘मैथुन’ को भी तन्त्र साधना में सम्मिलित किया गया है। यह वर्णन अलंकारिक है तथा सूक्ष्म रूप से दो मूल सत्ताओं के संयोग का संकेत देता है। शारीरिक रति कर्म से इसका सम्बन्ध किसी प्रकार नहीं जोड़ा जा सकता हैं।
कुण्डलिनी महाशक्ति मूलाधार में शिव लिंग के साथ प्रसुप्त सर्पिणी की भाँति पड़ी रहती है। जागरण के उपरान्त वह मलमूत्रों से युक्त निकृष्ट स्थान से उठाकर मस्तिष्क के सर्वोच्च स्थान पर जा विराजती है। छोटा-सा शिवलिंग मस्तिष्क में कैलाश पर्वत बन जाता है तथा छोटे से कुण्ड को मानसरोवर का रूप धारण करने का सुअवसर मिल जाता है। मूलाधार स्थित प्रसुप्त सर्पिणी जागृत होकर शिवकंठ से जा लिपटती है तथा शेषनाग के पराक्रमी रूप में दृष्टिगोचर होती है। यह कुण्डलिनी जागरण की परिणति है। सहस्रार को कल्पवृक्ष, स्वर्गलोक, अक्षय वट वृक्ष आदि के रूप में दिव्य वरदान देने वाला कहा गया है। यह सब उपमाएँ ब्रह्मरन्ध्र में निवास करने वाले ब्रह्म बीज के लिए प्रयुक्त की गयी हैं, जो अपनी अविकसित अवस्था में मात्र मन, बुद्धि के छोटे−मोटे प्रयोजनों को पूरा करता है पर जब जागरण की स्थिति में पहुँचता है तो दिव्य सामर्थ्य सम्पन्न बन जाता है।
आन्तरिक काम शक्ति को योग ग्रन्थों में महाशक्ति महाकाली के रूप में वर्णन किया गया है। एकाकी नर−नारी भौतिक जीवन में अस्त−व्यस्त रहते हैं। आन्तरिक जीवन में उभयपक्षीय विद्युत का समन्वय न होने से सर्वत्र नीरस नीरवता ही दिखायी पड़ती है, इसे दूर करके समग्र समर्थता एवं प्रफुल्लता उत्पन्न करने के लिए कुण्डलिनी साधना की जाती है। साधना विज्ञान में कुण्डलिनी साधना को ही अलंकारिक रूप में कामक्रीड़ा के शब्दों में व्यक्त किया गया है। योनि, लिंग, काम बीज, रज, वीर्य, संयोग आदि प्रयुक्त किया गये शब्दों में उसी अंतःशक्ति के जागरण की विधि−व्यवस्था सन्निहित है। सम्बन्धित उल्लेख अनेकों स्थानों पर आता है–
*तत्र स्थितो महालिंग स्वयं भुः सर्वदा सुखी। अधोमुखः क्रियावाँक्ष्य काम बीजेन न चलितः॥* –कालीकुलामृत
वहाँ, ब्रह्मरन्ध्र में वही महालिंग अवस्थित है। वह स्वयंभू और सुख स्वरूप है। इसका मुख नीचे की ओर है। यह निरन्तर क्रियाशील है। काम−बीज द्वारा चालित है।
*आत्मसंस्थंशिवं त्यक्त्वा बहिः सथंयः समर्चयेत्। हस्तस्थं पिण्डमुत्सृज् भ्रमते जीविताशया॥*
*आत्मलिंगार्चन कुर्यादनाल सयं दिने दिने। तस्यस्यात्सकला सिद्धिनाँत्र कार्याविचरण॥* – शिवसंहिता
अपने शरीर में अवस्थित शिव को त्याग कर जो बाहर−बाहर पूजते फिरते हैं।
वे हाथ के भोजन को छोड़ की इधर−इधर से प्राप्त करने के लिए भटकने वाले लोगों में से हैं।
इसी त्रिकोण विषय समाधि में अनन्त विश्व में व्याप्त होने वाली परम ज्योति प्रकट होती है वही कालाग्नि रूप है। जब योगी ध्यान, धारण, समाधि द्वारा उक्त ज्योति देखने लगता है तब उसका जन्म−मरण नहीं होता अर्थात् जीवन मुक्त हो जाता है।
मूलाधार स्थित कुण्डलिनी रूपी योनि और सहस्राररूपी लिंग का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों जब एकाकार हो जाते हैं तो दिव्य आदान−प्रदान आरम्भ हो जाता है। आत्मबल समुन्नत होता चला जाता है। उनके सम्बन्ध विच्छेद होने पर मनुष्य दीन, हीन, दुर्बल, असहाय, असमर्थ एवं असफल जीवन जीता है। कुण्डलिनी रूपी योनि और सहस्रार रूपी लिंग का संयोग मनुष्य की आन्तरिक अपूर्णता को दूर करता तथा परिपूर्ण बनाता है। साधना का उद्देश्य यही है। इसी को शिव शक्ति का संयोग तथा आत्मा का परमात्मा से मिलन कहते हैं।
Saturday, November 11, 2017
कुण्डलिनी विज्ञान
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