Sunday, August 12, 2018

वास्तु शास्त्र का मानव जीवन में महत्त्व एवं प्रभाव .....

वास्तु शास्त्र का मानव जीवन में महत्त्व एवं प्रभाव
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वास्तुशास्त्र जीवन के संतुलन का प्रतिपादन करता है।
यह संतुलन बिगड़ते ही मानव एकाकी और
समग्र रूप से कई प्रकार की कठिनाइयों और समस्याओं
का शिकार हो जाता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार पंचमहाभूतों-
पृथ्वी ,जल , वायु , अग्नि और आकाश के विधिवत
उपयोग से बने आवास में पंचतत्व से निर्मित
प्राणी की क्षमताओं को विकसित करने
की शक्ति स्वत: स्फूर्त हो जाती है।
विश्व के प्रथम विद्वान वास्तुविद् विश्वकर्मा के अनुसार शास्त्र
सम्मत निर्मित भवन विश्व को सम्पूर्ण सुख, धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष की प्राप्ति कराता है। वास्तु शिल्पशास्त्र
का ज्ञान मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कराकर लोक में
परमानन्द उत्पन्न करता है, अतः वास्तु शिल्प ज्ञान के बिना निवास
करने का संसार में कोई महत्व नहीं है। जगत और
वास्तु शिल्पज्ञान परस्पर पर्याय हैं।
वास्तु एक प्राचीन विज्ञान है। हमारे
ऋषि मनीषियों ने हमारे आसपास की सृष्टि में
व्याप्त अनिष्ट शक्तियों से हमारी रक्षा के उद्देश्य से
इस विज्ञान का विकास किया। वास्तु का उद्भव स्थापत्य वेद से हुआ
है, जो अथर्ववेद का अंग है। इस सृष्टि के साथ-साथ मानव
शरीर भी पृथ्वी, जल, अग्नि,
वायु और आकाश से बना है और वास्तु शास्त्र के अनुसार
यही तत्व जीवन तथा जगत को प्रभावित
करने वाले प्रमुख कारक हैं। भवन निर्माण में भूखंड और उसके
आसपास के स्थानों का महत्व बहुत अहम होता है।
भूखंड की शुभ-अशुभ दशा का अनुमान वास्तुविद्
आसपास की चीजों को देखकर
ही लगाते हैं। भूखंड की किस
दिशा की ओर क्या है और उसका भूखंड पर कैसा प्रभाव
पड़ेगा, इसकी जानकारी वास्तु शास्त्र के
सिद्धांतों के अध्ययन विश्लेषण से ही मिल
सकती है। इसके सिद्धांतों के अनुरूप निर्मित भवन में
रहने वालों के जीवन के सुखमय होने
की संभावना प्रबल हो जाती है। हर
मनुष्य की इच्छा होती है कि उसका घर
सुंदर और सुखद हो, जहां सकारात्मक ऊर्जा का वास हो,
जहां रहने वालों का जीवन सुखमय हो। इसके लिए
आवश्यक है कि घर वास्तु सिद्धांतों के अनुरूप हो और यदि उसमें
कोई वास्तु दोष हो, तो उसका वास्तुसम्मत सुधार किया जाए। यदि मकान
की दिशाओं में या भूमि में दोष हो तो उस पर
कितनी भी लागत लगाकर मकान
खड़ा किया जाए, उसमें रहने वालों की जीवन
सुखमय नहीं होता। मुगल कालीन भवनों,
मिस्र के पिरामिड आदि के निर्माण-कार्य में वास्तुशास्त्र
का सहारा लिया गया है।
वास्तु का प्रभाव चिरस्थायी है,
क्योंकि पृथ्वी का यह झुकाव शाश्वत है, ब्रह्माण्ड में
ग्रहों आदि की चुम्बकीय शक्तियों के
आधारभूत सिध्दांत पर यह निर्भर है और सारे विश्व में व्याप्त है
इसलिए वास्तुशास्त्र के नियम भी शाश्वत है, सिध्दांत
आधारित, विश्वव्यापी एवं सर्वग्राहा हैं।
किसी भी विज्ञान के लिए अनिवार्य
सभी गुण तर्क संगतता, साध्यता, स्थायित्व, सिध्दांत
परकता एवं लाभदायकता वास्तु के स्थायी गुण हैं।
अतः वास्तु को हम बेहिचक वास्तु विज्ञान कह सकते हैं।
जैसे आरोग्यशास्त्र के नियमों का विधिवत् पालन करके मनुष्य सदैव
स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकता है,
उसी प्रकार वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों के अनुसार भवन
निर्माण करके प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन
को सुखी बना सकता है। चिकित्साशास्त्र में जैसे डाक्टर
असाध्य रोग पीड़ित रोगी को उचित औषधि में
एवं आपरेशन द्वारा मरने से बचा लेता है उसी प्रकार
रोग, तनाव और अशांति देने वाले पहले के बने मकानों को वास्तुशास्त्र
के सिध्दांतों के अनुसार ठीक करवा लेने पर मनुष्य
जीवन में पुनः आरोग्य, शांति और सम्पन्नता प्राप्त कर
सकता है।
घर के वास्तु का प्रभाव उसमें रहने वाले
सभी सदस्यों पर पड़ता है, चाहे वह मकान मालिक
हो या किरायेदार। आजकल के इस महंगाई के दौर में मकान बनाना एक
बहुत बड़ी समस्या है। लोग जैसे-तैसे जोड़-तोड़ करके
अपने रहने के लिए मकान बनाने हेतु भूखंड खरीद
लेते हैं। जल्दबाजी में
अथवा सस्ती जमीन के चक्कर में वे
बिना किसी शास्त्रीय परीक्षण
के भूमि खरीद लेते हैं, और इस तरह
खरीदी गई जमीन उनके लिए
अशुभ सिद्ध होती है। उस पर बने मकान में रहने
वाले पूरे परिवार का जीवन कष्टमय हो जाता है।
आज फ्लैटों का चलन है। ये फ्लैट अनिययिमत आकार के भूखंडों पर
बने होते हैं। अब एक छोटे से भूखंड पर भी एक
बोरिंग, एक भूमिगत
पानी की टंकी व सेप्टिक टैंक
बनाए जाते हंै। लेकिन ज्ञानाभाव के कारण मकान के इन
अंगों का निर्माण अक्सर गलत स्थानों पर हो जाता है। फलतः संपूर्ण
परिवार का जीवन दुखमय हो जाता है।
जनसंख्या के आधिक्य एवं विज्ञान की प्रगति के कारण
आज समस्त विश्व में बहुमंजिली इमारतों का निर्माण
किया जा रहा है। जनसामान्य वास्तु सिध्दांतों के विरुध्द बने छोटे-छोटे
फ्लेट्स में रहने के लिए बाध्य है। कहा जाता है कि इन्हें
वास्तुशास्त्र के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता।
पर यदि राज्य सरकारें वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों के अनुसार
कॉलोनी निर्माण करने की ठान
ही लें और भूखण्डों को आड़े, तिरछे, तिकाने, छकोने न
काटकर सही दिशाओं के अनुरूप वर्गाकार या आयताकार
काटें, मार्गों को सीधा निकालें एवं कॉलोनाइजर्स का बाध्य करें
कि उन्हें वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों का अनुपालन करते हुए
ही बहुमंजिली इमारतें तथा अन्य भवन
बनाने हैं तो शत-प्रतिशत तो न सही पर साठ प्रतिशत
तक तो वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार नगर, कॉलोनी,
बस्ती, भवनों, औद्योगिक-व्यापारिक केन्द्रों तथा अन्य
का निर्माण किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप जन सामान्य सुख,
शांति पूर्ण एवं अरोग्यमय, तनाव रहित जीवन
व्यतीत कर सकता है।
हमारे प्राचीन साहित्य में वास्तु का अथाह महासागर
विद्यमान है। आवश्यकता है केवल खोजी दृष्टि रखने
वाले सजग गोताखोर की जो उस विशाल सागर में अवगाहन
कर सत्य के माणिक मोती निकाल सके और उस अमृत
प्रसाद को समान रूप से जन सामान्य में वितरित कर सुख और
समृध्दि का अप्रतिम भण्डार भेंट कर सकें,
तभी वास्तुशास्त्र
की सही उपयोगिता होगी।
मानव सभ्यता के विकास एवं विज्ञान की उन्नति के साथ
भवन निर्माण कला में अनेकानेक परिवर्तन होते गये। जनसंख्या में
द्रूतगति से होती वृध्दि और
भूखण्डों की सीमित संख्या जनसामान्य
की अशिक्षा और वास्तुग्रंथों के संस्कृत में लिखे होने
एवं मुद्रण प्रणाली के विकसित न होने के कारण इस
शास्त्र की उत्तरोत्तर
अवहेलना होगी गयी।
विदेशी शासकों के बार-बार हुए आक्रमणों एवं अंग्रेजों के
भारत में आगमन के पश्चात् पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में
हम अपने समृध्द ज्ञान के भंडार पर पूर्णरूप से अविश्वास कर
इसे कपोल कल्पित, भ्रामक एवं अंधविश्वास समझने लगे।
भौतिकतावाद के इस युग में जहां शारीरिक सुख बढ़े हैं,
वहीं लोगों का जीवन तनावग्रस्त
भी हुआ है। इस तनाव के वैसे तो कई कारण होते
हैं, परंतु वास्तु सिद्धांतों के प्रतिकूल बना भवन
भी इसका एक प्रमुख कारण होता है। पुराने समय में
सभी घर लगभग आयताकार होते थे। घरों में आम तौर पर
बोरिंग, पानी की भूमिगत टंकी,
सेप्टिक टैंक इत्यादि नहीं होते थे। जमीन
समतल हुआ करती थी।
यही कारण था कि तब लोगों का जीवन इस
तरह तनावग्रस्त नहीं हुआ करता था।
जनसामान्य वास्तु सिध्दांतों के विरुध्द बने छोटे-छोटे फ्लेट्स में रहने
के लिए बाध्य है। कहा जाता है कि इन्हें वास्तुशास्त्र के अनुरूप
नहीं बनाया जा सकता।यदि राज्य सरकारें वास्तुशास्त्र के
सिध्दांतों के अनुसार कॉलोनी निर्माण करने
की ठान ही लें और भूखण्डों को आड़े,
तिरछे, तिकाने, छकोने न काटकर सही दिशाओं के अनुरूप
वर्गाकार या आयताकार काटें, मार्गों को सीधा निकालें एवं
कॉलोनाइजर्स का बाध्य करें कि उन्हें वास्तुशास्त्र के
सिध्दांतों का अनुपालन करते हुए
ही बहुमंजिली इमारतें तथा अन्य भवन
बनाने हैं तो शत-प्रतिशत तो न सही पर साठ प्रतिशत
तक तो वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार नगर, कॉलोनी,
बस्ती, भवनों, औद्योगिक-व्यापारिक केन्द्रों तथा अन्य
का निर्माण किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप जन सामान्य सुख,
शांति पूर्ण एवं अरोग्यमय, तनाव रहित जीवन
व्यतीत कर सकता है।
वास्तु शास्त्र एवं ज्योतिष शास्त्र दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं
क्योंकि दोनों एक-दूसरे के अभिन्न अंग हैं। जैसे शरीर
का अपने विविध अंगों के साथ अटूट संबंध होता है।
ठीक उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र
का अपनी सभी शाखायें प्रश्न शास्त्र, अंक
शास्त्र, वास्तु शास्त्र आदि के साथ अटूट संबंध है। ज्योतिष एवं
वास्तु शास्त्र के बीच निकटता का कारण यह है
कि दोनों का उद्भव वैदिक संहितायों से हुआ है।
दोनों शास्त्रों का लक्ष्य मानव मात्र को प्रगति एवं
उन्नति की राह पर अग्रसर कराना है एवं
सुरक्षा देना है। अतः प्रत्येक मनुष्य को वास्तु के अनुसार भवन
का निर्माण करना चाहिए एवं ज्योतिषीय उपचार (मंत्र,
तंत्र एवं यंत्र के द्वारा) समय-समय पर करते रहना चाहिए,
क्योंकि ग्रहों के बदलते चक्र के अनुसार बदल-बदल कर
ज्योतिषीय उपचार करना पड़ता है। वास्तु
तीन प्रकार के होते हैं- त्र आवासीय –
मकान एवं फ्लैट त्र व्यावसायिक -व्यापारिक एवं औद्योगिक त्र
धार्मिक- धर्मशाला, जलाशय एवं धार्मिक संस्थान। वास्तु में
भूमि का विशेष महत्व है। भूमि चयन करते समय
भूमि या मिट्टी की गुणवत्ता का विचार कर
लेना चाहिए।
भूमि परीक्षण के लिये भूखंड के मध्य में
भूस्वामी के हाथ के बराबर एक हाथ गहरा, एक हाथ
लंबा एवं एक हाथ चौड़ा गड्ढा खोदकर उसमें से
मिट्टी निकालने के पश्चात्
उसी मिट्टी को पुनः उस गड्ढे में भर
देना चाहिए। ऐसा करने से यदि मिट्टी शेष रहे
तो भूमि उत्तम, यदि पूरा भर जाये तो मध्यम और यदि कम पड़ जाये
तो अधम अर्थात् हानिप्रद है। अधम भूमि पर भवन निर्माण
नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार पहले के
अनुसार नाप से गड्ढा खोद कर उसमें जल भरते हैं, यदि जल उसमें
तत्काल शोषित न हो तो उत्तम और यदि तत्काल शोषित हो जाए
तो समझें कि भूमि अधम है। भूमि के खुदाई में
यदि हड्डी, कोयला इत्यादि मिले तो ऐसे भूमि पर भवन
नहीं बनाना चाहिए।
यदि खुदाई में ईंट पत्थर निकले तो ऐसा भूमि लाभ देने वाला होता है।
भूमि का परीक्षण बीज बोकर
भी किया जाता है। जिस भूमि पर वनस्पति समय पर
उगता हो और बीज समय पर अंकुरित
होता हो तो वैसा भूमि उत्तम है। जिस भूखंड पर थके होकर
व्यक्ति को बैठने से शांति मिलती हो तो वह भूमि भवन
निर्माण करने योग्य है। वास्तु शास्त्र में भूमि के आकार पर
भी विशेष ध्यान रखने को कहा गया है। वर्गाकार
भूमि सर्वोत्तम, आयताकार भी शुभ होता है। इसके
अतिरिक्त सिंह मुखी एवं गोमुखि भूखंड
भी ठीक होता है। सिंह
मुखी व्यावसायिक एवं
गोमुखी आवासीय दृष्टि उपयोग के लिए
ठीक होता है।
किसी भी भवन में प्राकृतिक
शक्तियों का प्रवाह दिशा के अनुसार होता है अतः यदि भवन
सही दिशा में बना हो तो उस भवन में रहने
वाला व्यक्ति प्राकृतिक शक्तियों का सही लाभ उठा सकेगा,
किसकी भाग्य वृद्धि होगी।
किसी भी भवन में कक्षों का दिशाओं के
अनुसार स्थान इस प्रकार होता है।
वास्तुशास्त्र को लेकर हर प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है।
भूखण्ड एवं भवन के दोषपूर्ण होने पर उसे उचित प्रकार से
वास्तुनुसार साध्य बनाया जा सकता है। हमने अपने अनुभव से
जाना है कि जिन घरों के दक्षिण में कुआं पाया गया उन
घरों की गृहस्वामिनी का असामयिक निधन
आकस्मिक रूप से हो गया तथा घर की बहुएं
चिरकालीन बीमारी से
पीड़ित मिली। जिन घरों या औद्योगिक
संस्थानों ने नैऋत्य में बोरिंग या कुआं पाया गया वहां निरन्तर धन नाश
होता रहा, वे राजा से रंक बन गये, सुख समृध्दि वहां से कोसों दूर
रही, औद्योगिक संस्थानों पर ताले पड़ गये। जिन
घरों या संस्थानों के ईशान कोण कटे अथवा भग्न मिले वहां तो संकट
ही संकट पाया गया। यहां तक कि उस
गृहस्वामी अथवा उद्योगपति की संतान तक
विकलांग पायी गयी। जिन घरों के ईशान में
रसोई पायी गयी उन दम्पत्तियों के
यहां कन्याओं को जन्म अधिक मिला या फिर वे गृह कलह से
त्रस्त मिले। जिन घरों में पश्चिम तल नीचा होता है
तथा पश्चिमी नैऋत्य में मुख्य द्वार
होती है, उनके पुत्र मेधावी होने पर
भी निकम्मे तथा उल्टी-
सीधी बातों में लिप्त मिले हैं।
वास्तु शास्त्र के आर्षग्रन्थों में बृहत्संहिता के बाद
वशिष्ठसंहिता की भी बड़ी मान्य
तथा दक्षिण भारत के वास्तु शास्त्री इसे
ही प्रमुख मानते हैं। इस संहिता ग्रंथ के अनुसार
विशेष वशिष्ठ संहिता के अनुसार अध्ययन कक्ष निवृत्ति से वरुण के
मध्य होना चाहिए। वास्तु मंडल में निऋति एवं वरुण के मध्य दौवारिक
एवं सुग्रीव के पद होते हैं। दौवारिक का अर्थ होता है
पहरेदार तथा सुग्रीव का अर्थ है सुंदर कंठ वाला।
दौवारिक की प्रकृति चुस्त एवं
चौकन्नी होती है। उसमें आलस्य
नहीं होती है। अतः दौवारिक पद पर
अध्ययन कक्ष के निर्माण से विद्यार्थी चुस्त एवं
चौकन्ना रहकर अध्ययन कर सकता है तथा क्षेत्र विशेष में
सफलता प्राप्त कर सकता है। पश्चिम एवं र्नैत्य कोण के
बीच अध्ययन कक्ष के प्रशस्त मानने के
पीछे एक कारण यह भी है कि यह
क्षेत्र गुरु, बुध एवं चंद्र के प्रभाव क्षेत्र में आता है। बुध
बुद्धि प्रदान करने वाला, गुरु ज्ञान पिपासा को बढ़ाकर विद्या प्रदान
करने वाला ग्रह है। चंद्र मस्तिष्क को शीतलता प्रदान
करता है। अतः इस स्थान पर विद्याभ्यास करने से निश्चित रूप से
सफलता मिलती है।
टोडरमल ने अपने ‘वास्तु सौखयम्’ नामक ग्रंथ में वर्णन किया है
कि उत्तर में जलाशय जलकूप या बोरिंग करने से धन वृद्धि कारक
तथा ईशान कोण में हो तो संतान वृद्धि कारक होता है। राजा भोज के
समयंत्रण सूत्रधार में जल की स्थापना का वर्णन इस
प्रकार किया-’पर्जन्यनामा यश्चाय् वृष्टिमानम्बुदाधिप’। पर्जन्य के
स्थान पर कूप का निर्माण उत्तम होता है, क्योंकि पर्जन्य
भी जल के स्वामी हैं। विश्वकर्मा भगवान
ने कहा है कि र्नैत्य, दक्षिण, अग्नि और वायव्य कोण को छोड़कर
शेष सभी दिशाओं में जलाशय बनाना चाहिये।
तिजोरी हमेशा उत्तर, पूर्व या ईशान कोण में
रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त आग्नेय दक्षिणा, र्नैत्य पश्चिम एवं
वायव्य कोण में धन का तिजोरी रखने से हानि होता है।
ड्राईंग रूम को हमेशा भवन के उत्तर दिशा की ओर
रखना श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि उत्तर दिशा के
स्वामी ग्रह बुध एवं देवता कुबेर हैं।
वाणी को प्रिय, मधुर एवं संतुलित बनाने में बुध
हमारी सहायता करता है।
वाणी यदि मीठी और संतुलित
हो तो वह व्यक्ति पर प्रभाव डालती है और
दो व्यक्तियों के बीच जुड़ाव पैदा करती है।
र्नैत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में वास्तु पुरुष के पैर होते हैं।
अतः इस दिशा में भारी निर्माण कर भवन
को मजबूती प्रदान किया जा सकता है, जिससे भवन
को नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव से बचाकर सकारात्मक
शक्तियों का प्रवेश कराया जा सकता है। अतः गोदाम (स्टोर) एवं गैरेज
का निर्माण र्नैत्य कोण में करते हैं। जिस भूखंड का ईशान कोण
बढ़ा हुआ हो तो वैसे भूखंड में कार्यालय बनाना शुभ होता है।
वर्गाकार, आयताकार, सिंह मुखी, षट्कोणीय
भूखंड पर कार्यालय बनाना शुभ होता है। कार्यालय का द्वार उत्तर
दिशा में होने पर अति उत्तम होता है।
पूर्वोत्तर दिशा में अस्पताल बनाना शुभ होता है।
रोगियों का प्रतीक्षालय दक्षिण दिशा में होना चाहिए।
रोगियों को देखने के लिए डॉक्टर का कमरा उत्तर दिशा में होना चाहिए।
डॉक्टर मरीजों की जांच पूर्व या उत्तर
दिशा में बैठकर करना चाहिए। आपातकाल कक्ष
की व्यवस्था वायव्य कोण में होना चाहिए। यदि कोई
भूखंड आयताकार या वर्गाकार न हो तो भवन का निर्माण आयताकार
या वर्गाकार जमीन में करके
बाकी जमीन को खाली छोड़ दें
या फिर उसमें पार्क आदि बना दें।
भवन को वास्तु के नियम से बनाने के साथ-साथ भाग्यवृद्धि एवं
सफलता के लिए व्यक्ति को ज्योतिषीय उपचार
भी करना चाहिए। सर्वप्रथम
किसी भी घर में श्री यंत्र एवं
वास्तु यंत्र का होना अति आवश्यक है। श्री यंत्र के
पूजन से लक्ष्मी का आगमन होता रहता है
तथा वास्तु यंत्र के दर्शन एवं पूजन से घर में वास्तु दोष का निवारण
होता है। इसके अतिरिक्त गणपति यंत्र के दर्शन एवं पूजन से
सभी प्रकार के विघ्न-बाधा दूर हो जाते हैं। ज्योतिष एवं
वास्तु एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना प्रारंभिक ज्योतिषीय
ज्ञान के वास्तु शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त
नहीं किया जा सकता और बिना ‘कर्म’ के इन दोनों के
आत्मसात ही नहीं किया जा सकता। इन
दोनों के ज्ञान के बिना भाग्य वृद्धि हेतु
किसी भी प्रकार के कोई
भी उपाय नहीं किए जा सकते।
वास्तुविद्या मकान को एक शांत , सुसंस्कृत और सुसज्जित घर में
तब्दील करती है। यह घर परिवार के
सभी सदस्यों को एक हर्षपूर्ण , संतुलित और
समृद्धि जीवन शैली की ओर ले
जाता है।
मकान में अपनी ज़रूरत से अधिक अनावश्यक निर्माण
और फिर उन फ्लोर या कमरों को उपयोग में न लाना ,बेवजह के सामान
से कमरों को ठूंसे रखना भवन के आकाश तत्व को दूषित करता है।
नकारात्मक शक्तियों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए सुझाव है
कि भवन में उतना ही निर्माण करें जितना आवश्यक हो।
भाग्य का निर्माण केवल ज्योतिष और वास्तु से
ही नहीं होता, वरन् इनके साथ कर्म
का योग होना भी अति आवश्यक है। इसलिए
ज्योतिषीय एवं वास्तुसम्मत ज्ञान के साथ-साथ विभिन्न
दैवीय साधनाओं, वास्तु पूजन एवं ज्योतिष व वास्तु के
धार्मिक पहलुओं पर भी विचार करना अत्यंत आवश्यक
है। भाग्यवृद्धि में वास्तु शास्त्र का महत्व वास्तु विद्या बहुत
ही प्राचीन विद्या है। ज्योतिष शास्त्र के
ज्ञान के साथ-साथ वास्तु शास्त्र का ज्ञान
भी उतना ही आवश्यक है
जितना कि ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान। विश्व के प्राचीनतम्
ग्रंथ ऋग्वेद में भी इसका उल्लेख मिलता है। वास्तु के
गृह वास्तु, प्रासाद वास्तु, नगर वास्तु, पुर वास्तु, दुर्गवास्तु
आदि अनेक भेद हैं।
भाग्य वृद्धि के लिए वास्तु शास्त्र के नियमों का महत्व
भी कम नहीं है। घर या ऑफिस का वास्तु
ठीक न हो तो भाग्य बाधित होता है। वास्तु और भाग्य
का जीवन में कितना संयोग है? क्या वास्तु के द्वारा भाग्य
बदलना संभव है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए यह
जानना आवश्यक है कि भाग्य का निर्माण वास्तु से
नहीं अपितु कर्म से होता है और वास्तु
का जीवन में उपयोग एक कर्म है और इस कर्म
की सफलता का आधार वास्तुशास्त्रीय ज्ञान
है। पांच आधारभूत पदार्थों भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश से
यह ब्रह्मांड निर्मित है और ये पांचों पदार्थ ही पंच
महाभूत कहे जाते हैं। इन पांचों पदार्थों के प्रभावों को समझकर
उनके अनुसार अपने भवनों का निर्माण कर मनुष्य अपने
जीवन और कार्यक्षेत्र को अधिक
सुखी और सुविधा संपन्न कर सकता है।
वास्तु सिद्धांत के अनुरूप निर्मित भवन एवं उसमें वास्तुसम्मत दिशाओं
में सही स्थानों पर रखी गई वस्तुओं के
फलस्वरूप उसमें रहने वाले लोगो का जीवन शांतिपूर्ण
और सुखमय होता है। इसलिए उचित यह है कि भवन का निर्माण
किसी वास्तुविद से परामर्श लेकर वास्तु सिद्धांतों के
अनुरूप ही करना चाहिए। इस तरह, मनुष्य के
जीवन में वास्तु का महत्व अहम होता है। इसके
अनुरूप भवन निर्माण से उसमें सकारात्मक ऊर्जा का वास होता है।
फलस्वरूप
उसमें रहने वालों का जीवन सुखमय होता है।
वहीं, परिवार के सदस्यों को उनके हर कार्य में
सफलता मिलती है।

Wednesday, August 1, 2018

पाराशरी सिद्धांत क्या है?

पाराशरी सिद्धांत क्या है?

लघुपाराशरी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके बिना फलित ज्योतिष का ज्ञान अधूरा है। पाराशरी सिद्धांतों का लघुपाराशरी में वर्णन किया गया है। संस्कृत श्लोकों में रचित लघु ग्रन्थ लघुपाराशरी में फलित ज्योतिष संबंधी सिद्धांतों का वर्णन है और ये 42 सूत्रों के माध्यम से वर्णित है। एक-एक सूत्र अपने आप में अमूल्य है, इसे 'जातकचन्द्रिका'  "उडुदाय प्रदीप" भी कहा जाता है। यह विंशोत्तरी दशा पद्धति का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा वृहद् पाराशर होराशास्त्र पर आधारित है। फलित ज्योतिष विद्या के महासागर रुपी ज्ञान को अर्जित करने के लिए पाराशर सिद्धांतों पर आधारित लघुपाराशरी एक बहुमूल्य साधन सिद्ध हो सकती है। इस पुस्तक का कोई एक लेखक नहीं है। यह पुस्तक पाराशरी सिद्धांत को मानने वाले महर्षि पाराशर,  उनके अनुयायियों, प्रकांड विद्वानों द्वारा सामूहिक रूप से सम्पादित है।

फलित ज्योतिष पर आधारित इस ग्रंथ के आधार में कई बडे ग्रंथों की रचना की गई। फलित ज्योतिष पर आधारित इस ग्रन्थ को अधिकतम ज्योतिषी भविष्यवाणी करने के लिए प्रयोग में लाते हैं। इस ग्रंथ में मूलतः पाराशर सिद्धांतों के 42 सूत्रों में नौ ग्रहों की विविध भावों में उपस्थिति, ग्रहों की मित्रता, शत्रुता अथवा सम होना, ग्रहों की पूर्ण व आंशिक दृष्टियों का उल्लेख, भाव, कारकों, दशाओं, राजयोग, मृत्यु योग सहित भावानुसारी फलादेश आदि पर वर्णन किया गया है।

क्‍या कहता है ज्‍योतिष शास्त्र -

ज्‍योतिष शास्त्र के अनुसार, बारह राशियां होती है और हर राशि वाले व्यक्ति की कुंडली में बारह भाव होते हैं जो नौ ग्रहों की दशा से प्रभावित होते हैं। सात मुख्य ग्रहों सूर्य, चन्द्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि के साथ-साथ 2 और ग्रहों राहु और केतु का कुंडली में बहुत ख़ास स्थान होता है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, हर व्यक्ति की कुंडली में मारक और कारक दशा होती है जो ग्रहों के कारण बनती है। ऐसी ही एक दशा मारकेश है जो ग्रहों के कारण बनती है। मारकेश सिद्धांतों को संक्षिप्त में पराशर सिद्धांत्तों का आधार बताया जाता है।

लघुपाराशरी में 42 सूत्र या श्लोक हैं जो पाँच अध्यायों में विभक्त हैं।

1. संज्ञाध्याय
2. योगाध्याय
3. आयुर्दायाध्याय
4. दशाफलाध्याय
5. शुभाशुभग्रहकथनाध्याय

पाराशरी संहिता में निहित मूलभूत सिद्धांतों का वर्णन और शुभ फलों की प्राप्ति के कारक :

• जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ग्रह एक-दूसरे की राशि में होते हैं तो शुभ फल प्राप्त होते है।
• जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ग्रह एक-दूसरे से दृष्टि संबंध में हो तो शुभ फल प्राप्त होते है।
• कुंडली में ग्रहों की परस्पर युति होने पर शुभ फल प्राप्त होते हैं।
• कुंडली में एक ग्रह दूसरे ग्रह को संदर्भित करता हो तो शुभ फल प्राप्त होते हैं।

इन स्थितियों में होती है शुभ फलों की प्राप्ति असंभव -

महर्षि पाराशर मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर शुभ फलों की प्राप्ति के कारको में कुछ ऐसी बाधाओं का भी वर्णन है जिसके रहते शुभ फलों की प्राप्ति असंभव हो जाती है। उन बाधाओं का वर्णन नीचे दिया गया है।

• नैसर्गिक शुभ ग्रह केंद्राधिपत्य रूप से दोषी न हो।
• गुरु, मंगल, शनि तथा बुध ग्रहों की दूसरी राशि दुष्ट स्थानों में न हो।
• पूर्व वर्णित चारों ही स्थितियों में ग्रहों की युति किसी अन्य पापी या क्रूर ग्रह से न हो।
• ग्रह शत्रु गृही, नीचस्तंगत या पाप कर्तरी स्थिति में न हो।
• ग्रहों को पाप मध्यत्व न प्राप्त हो।

पाराशर सिद्धांतों के 42 सूत्रों का वर्णन:

1. फल कहते हैं- नक्षत्रों की दशा के अनुसार ही शुभ-अशुभ फल कहते हैं। इस ग्रंथ के अनुसार फल कहने में विंशोत्तरी दशा ही ग्रहण करनी चाहिए। अष्टोत्तरी दशा यहां ग्राह्य नहीं है।
2. ज्योतिष शास्त्र- सामान्य ग्रंथों पर से भाव, राशि इत्यादि की जानकारी ज्योतिष शास्त्रों से जाननी चाहिए। इस ग्रंथ में जो विरोध संज्ञा है वह शास्त्रम के अनुरोध से कहते हैं।
3. ग्रह का स्थान- सभी ग्रह जिस स्थान पर बैठे हों, उससे सातवें स्थान को देखते हैं। शनि तीसरे व दसवें, गुरु नवम व पंचम तथा मंगल चतुर्थ व अष्टम स्थान को विशेष देखते हैं।
4. त्रिषडाय के स्‍वामी- कोई भी ग्रह त्रिकोण का स्वामी होने पर शुभ फलदायक होता है। (लगन, पंचम और नवम भाव को त्रिकोण कहते हैं) तथा त्रिषडाय का स्वामी हो तो पाप फलदायक होता है (तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव को त्रिषडाय कहते हैं।)
5. त्रिषडाय को अशुभ फल - सिद्धांत 4 में निहित स्थिति के बावजूद त्रिषडाय के स्वामी अगर त्रिकोण के भी स्वामी हो तो अशुभ फल ही आते हैं।
6. सौम्या ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र और पूर्ण चंद्र) यदि केन्द्रों के स्वामी हो तो शुभ फल नहीं देते हैं।
7. क्रूर ग्रह (रवि, शनि, मंगल, क्षीण चंद्र और पापग्रस्तय बुध) यदि केन्द्र के अधिपति हो तो वे अशुभ फल नहीं देते हैं। ये अधिपति भी उत्तरोतर क्रम में बली हैं। (यानी चतुर्थ भाव से सातवां भाव अधिक बली, तीसरे भाव से छठा भाव अधिक बली)
8. स्व स्थान ना होने पर रिजल्‍ट- लग्‍न से दूसरे अथवा बारहवें भाव के स्वामी दूसरे ग्रहों के सहचर्य से शुभ अथवा अशुभ फल देने में सक्षम होते हैं। इसी प्रकार अगर वे स्व स्थान पर होने के बजाय अन्य भावों में हो तो उस भाव के अनुसार फल देते हैं। (इन भावों के अधिपतियों का खुद का कोई आत्मनिर्भर रिजल्ट नहीं होता है।)
9. लग्नेश होने पर शुभ फल- आठवां भाव नौंवे भाव से बारहवें स्थान पर पड़ता है, अत: शुभफलदायी नहीं होता है। यदि लग्नेश भी हो तभी शुभ फल देता है (यह स्थिति केवल मेष और तुला लग्न में आती है)
10. केन्द्राधिपति ग्रह- शुभ ग्रहों के केन्द्राधिपति होने के दोष गुरु और शुक्र के संबंध में विशेष हैं। ये ग्रह केन्द्राधिपति होकर मारक स्थान (दूसरे और सातवें भाव) में हो या इनके अधिपति हो तो बलवान मारक बनते हैं।
11. सूर्य और चंद्रमा को अष्टमेश दोष नहीं- केन्द्राधिपति दोष शुक्र की तुलना में बुध का कम और बुध की तुलना में चंद्र का कम होता है। इसी प्रकार सूर्य और चंद्रमा को अष्टमेश होने का दोष नहीं लगता है।
12. मंगल दशमेश होने से देगा अशुभ फल - मंगल दशम भाव का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। किंतु यही त्रिकोण का स्वामी भी हो तभी शुभफलदायी होगा। केवल दशमेश होने से नहीं देगा। (यह स्थिति केवल कर्क लग्‍न में ही बनती है)
13. राहु और केतु जिन-जिन भावों में बैठते हैं, अथवा जिन-जिन भावों के अधिपतियों के साथ बैठते हैं तब उन भावों अथवा साथ बैठे भाव अधिपतियों के द्वारा मिलने वाले फल ही देंगे। (यानी राहु और केतु जिस भाव और राशि में होंगे अथवा जिस ग्रह के साथ होंगे, उसके फल देंगे)। फल भी भावों और अधिपतियों के मुताबिक होगा।
14. केन्द्राधिपति और त्रिकोणाधिपति - ऐसे केन्द्राधिपति और त्रिकोणाधिपति जिनकी अपनी दूसरी राशि भी केन्द्र और त्रिकोण को छोड़कर अन्य स्थानों में नहीं पड़ती हो, तो ऐसे ग्रहों के संबंध विशेष योगफल देने वाले होते हैं।
15. बलवान त्रिकोण और केन्द्र के अधिपति खुद दोषयुक्त हों, लेकिन आपस में संबंध बनाते हैं तो ऐसा संबंध योगकारक होता है।
16. धर्म और कर्म स्थान के स्वामी अपने-अपने स्थानों पर हों अथवा दोनों एक दूसरे के स्थानों पर हों तो वे योगकारक होते हैं। यहां कर्म स्थान दसवां भाव है और धर्म स्थान नवम भाव है। दोनों के अधिपतियों का संबंध योगकारक बताया गया है।
17. राजयोग कारक - नवम और पंचम स्थान के अधिपतियों के साथ बलवान केन्द्राधिपति का संबंध शुभफलदायक होता है। इसे राजयोग कारक भी बताया गया है।
18. योगकारक ग्रहों (यानी केन्द्र और त्रिकोण के अधिपतियों) की दशा में बहुधा राजयोग की प्राप्ति होती है। योगकारक संबंध रहित ऐसे शुभ ग्रहों की दशा में भी राजयोग का फल मिलता है।
19. योगज फल - योगकारक ग्रहों से संबंध करने वाला पापी ग्रह अपनी दशा में तथा योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में जिस प्रमाण में उसका स्वयं का बल है, तदानुसार वह योगज फल देगा। (यानी पापी ग्रह भी एक कोण से राजयोग में कारकत्व की भूमिका निभा सकता है।)
20. यदि एक ही ग्रह केन्द्र व त्रिकोण दोनों का स्वामी हो तो योगकारक होता ही है। उसका यदि दूसरे त्रिकोण से संबंध हो जाए तो उससे बड़ा शुभ योग क्या हो सकता है।
21. राहु अथवा केतु यदि केन्द्र या त्रिकोण में बैठे हों और उनका किसी केन्द्र अथवा त्रिकोणाधिपति से संबंध हो तो वह योगकारक होता है।
22. राजयोग भंग - धर्म और कर्म भाव के अधिपति यानी नवमेश और दशमेश यदि क्रमश: अष्टमेश और लाभेश हों तो इनका संबंध योगकारक नहीं बन सकता है। (उदाहरण के तौर पर मिथुन लग्‍न) । इस स्थिति को राजयोग भंग भी मान सकते हैं।
23. मारक स्थान - राजयोग भंग जन्म स्थान से अष्टम स्थान को आयु स्थान कहते हैं। और इस आठवें स्थान से आठवां स्थान आयु की आयु है अर्थात लग्‍न से तीसरा भाव। दूसरा भाव आयु का व्यय स्थान कहलाता है। अत: द्वितीय एवं सप्तम भाव मारक स्थान माने गए हैं।
24. जातक की मृत्यु - द्वितीय एवं सप्ताम मारक स्थानों में द्वितीय स्थान सप्तम की तुलना में अधिक मारक होता है। इन स्थानों पर पाप ग्रह हो और मारकेश के साथ युक्ति कर रहे हों तो उनकी दशाओं में जातक की मृत्यु होती है।
25. मृत्यु का संकेत- यदि उनकी दशाओं में मृत्यु की आशंका न हो तो सप्तमेश और द्वितीयेश की दशाओं में मृत्यु होती है।
26. मारकत्व गुण - मारक ग्रहों की दशाओं में मृत्यु ना होती हो तो कुण्डली में जो पापग्रह बलवान हो उसकी दशा में मृत्यु होती है। व्ययाधिपति की दशा में मृत्यु न हो तो व्ययाधिपति से संबंध करने वाले पापग्रहों की दशा में मरण योग बनेगा। व्ययाधिपति का संबंध पापग्रहों से न हो तो व्ययाधिपति से संबंधित शुभ ग्रहों की दशा में मृत्यु् का योग बताना चाहिए। ऐसा समझना चाहिए। व्ययाधिपति का संबंध शुभ ग्रहों से भी न हो तो जन्म लग्‍न से अष्टम स्थान के अधिपति की दशा में मरण होता है। अन्यथा तृतीयेश की दशा में मृत्यु होगी। (मारक स्थानाधिपति से संबंधित शुभ ग्रहों को भी मारकत्व का गुण प्राप्त होता है।)
27. मारक ग्रहों की दशा में मृत्यु न आए तो कुण्डली में जो बलवान पापग्रह हैं उनकी दशा में मृत्यु की आशंका होती है। ऐसा विद्वानों को मारक कल्पित करना चाहिए।
28. शनि ग्रह- पापफल देने वाला शनि जब मारक ग्रहों से संबंध करता है तब पूर्ण मारकेशों को अतिक्रमण कर नि: संदेह मारक फल देता है। इसमें संशय नहीं है।
29. शुभ अथवा अशुभ फल - सभी ग्रह अपनी अपनी दशा और अंतरदशा में अपने भाव के अनुरूप शुभ अथवा अशुभ फल प्रदान करते हैं। (सभी ग्रह अपनी महादशा की अपनी ही अंतरदशा में शुभफल प्रदान नहीं करते)
30. दशानाथ जिन ग्रहों के साथ संबंध करता हो और जो ग्रह दशानाथ सरीखा समान धर्म हो, वैसा ही फल देने वाला हो तो उसकी अंतरदशा में दशानाथ स्वंय की दशा का फल देता है।
31. दशानाथ के संबंध रहित तथा विरुद्ध फल देने वाले ग्रहों की अंतरदशा में दशाधिपति और अंतरदशाधिपति दोनों के अनुसार दशाफल कल्पना करके समझना चाहिए। (विरुद्ध व संबंध रहित ग्रहों का फल अंतरदशा में समझना अधिक महत्वपूर्ण है)
32. केन्द्र का स्वामी और त्रिकोणेश - केन्द्र का स्वामी अपनी दशा में संबंध रखने वाले त्रिकोणेश की अंतरदशा में शुभफल प्रदान करता है। त्रिकोणेश भी अपनी दशा में केन्द्रेश के साथ यदि संबंध बनाए तो अपनी अंतरदशा में शुभफल प्रदान करता है। यदि दोनों का परस्पर संबंध न हो तो दोनों अशुभ फल देते हैं।
33. राज्याधिकार से प्रसिद्धि- यदि मारक ग्रहों की अंतरदशा में राजयोग आरंभ हो तो वह अंतरदशा मनुष्य को उत्तरोतर राज्याधिकार से केवल प्रसिद्ध कर देती है। पूर्ण सुख नहीं दे पाती है।
34. राज्य से सुख और प्रतिष्ठा - अगर राजयोग करने वाले ग्रहों के संबंधी शुभग्रहों की अंतरदशा में राजयोग का आरंभ हो तो राज्य से सुख और प्रतिष्ठा बढ़ती है। राजयोग करने वाले से संबंध न करने वाले शुभग्रहों की दशा प्रारंभ हो तो फल सम होते हैं। फलों में अधिकता या न्यूनता नहीं दिखाई देगी। जैसा है वैसा ही बना रहेगा।
35. योगकारक ग्रहों के साथ संबंध करने वाले शुभग्रहों की महादशा के योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में योगकारक ग्रह योग का शुभफल देते हैं।
36. राजयोग रहित शुभग्रह - राहु केतू यदि केन्द्र (विशेषकर चतुर्थ और दशम स्थान में) अथवा त्रिकोण में स्थित होकर किसी भी ग्रह के साथ संबंध नहीं करते हो तो उनकी महादशा में योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में उन ग्रहों के अनुसार शुभयोगकारक फल देते हैं। (यानी शुभारुढ़ राहु केतु शुभ संबंध की अपेक्षा नहीं रखते। बस वे पाप संबंधी नहीं होने चाहिए तभी कहे हुए अनुसार फलदायक होते हैं।) राजयोग रहित शुभग्रहों की अंतरदशा में शुभफल होगा, ऐसा समझना चाहिए।
37. महादशा के स्वामी - यदि महादशा के स्वामी पापफलप्रद ग्रह हों तो उनके असंबंधी शुभग्रह की अंतरदशा पापफल ही देती है। उन महादशा के स्वामी पापी ग्रहों के संबंधी शुभग्रह की अंतरदशा मिश्रित (शुभ एवं अशुभ) फल देती है।
38. पापी दशाधिप से असंबंधी योगकारक ग्रहों की अंतरदशा अत्यंत पापफल देने वाली होती है।
39. मारक ग्रहों की महादशा में उनके साथ संबंध करने वाले शुभ ग्रहों की अंतरदशा में दशानाथ मारक नहीं बनता है। परन्तु उसके साथ संबंध रहित पापग्रह अंतरदशा में मारक बनते हैं।
40. शुक्र और शनि अपनी-अपनी महादशा और अंतरदशा में शुभ फल देते हैं। यानि शनि महादशा में शुक्र की अंतरदशा हो तो शनि के फल मिलेंगे। शुक्र की महादशा में शनि के अंतर में शुक्र के फल मिलेंगे। इस फल के लिए दोनों ग्रहों के आपसी संबंध की अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए।
41. दशम स्थान का स्‍वामी लग्‍न में और लग्‍न का स्वामी दशम में, ऐसा योग हो तो वह राजयोग समझना चाहिए। इस योग पर विख्यात और विजयी ऐसा मनुष्य होता है।
42. नवम स्थान का स्वामी दशम में और दशम स्थान का स्वामी नवम में हो तो ऐसा योग राजयोग होता है। इस योग पर विख्यात और विजयी पुरुष होता है।