Sunday, November 26, 2017

चतुर्थ भाव के कारकत्व

चतुर्थ भाव के कारकत्व
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चतुर्थ भाव के कारकत्व -----

१. पागलपन--- यदि चतुर्थ भाव तथा चतुर्थेश और चन्द्र , बुद्धि द्योतक अंगों जैसे-- लग्नेश, पंचमेश तथा बुध के साथ पापी ग्रहों द्वारा युत अथवा दृष्ट हों तो मनुष्य पागल (Insane) हो जाता है, कारण कि भावनाओं (Emotions) तथा बुद्धि (Intellect) का बिगड़ना ही पागलपन है ।

२. भय--- चतुर्थेश चन्द्र , चतुर्थ भाव पर युति अथवा दृष्टि द्वारा केवल राहू का प्रभाव हो तो मनुष्य मैं भय कि सृष्टि होती है । इस भय के कारण मनुष्य को बेहोशी (Fits) भी हो सकते हैं ।

३. मिर्गी रोग ---- यदि चतुर्थेश चन्द्र, अष्टम भाव राहू से पीड़ित हो तो मिर्गी का रोग होता है । कारण कि चतुर्थेश तथा चन्द्र दोनों ही मन के प्रतिनिधि हैं और अष्टम स्थान नाश का है तथा राहू चन्द्र के लिए विशेष त्रास उत्पन्न करने वाला प्रसिद्ध है ।

४. विशेष रूचि--- चतुर्थेश चन्द्र जिस भाव मैं स्थित हो मनुष्य उस भाव से विशेष रूचि रखता है, जैसे चतुर्थेश षष्ठ मैं हो तो मनुष्य परिश्रमी और व्यायाम प्रिय होता है क्योंकि षष्ठ स्थान परिश्रम और व्यायाम का है और चतुर्थेश चन्द्र मन का पक्का प्रतिनिधि है ही ।
स्त्री कि कुंडली मैं चतुर्थेश और पचमेश का व्यत्यय अर्थात स्थान परिवर्तन स्त्री को नृत्य आदि कला मैं निपुण बनता है यह योग और भी अधिक प्रबल हो जाता है जब कि पंचमेश (आमोद ;प्रमोद स्थान का स्वामी ) स्वयं शुक्र हो और बुध से युत हो ।

५. माता----- यदि च चतुर्थ भाव, चतुर्थेश और चन्द्र सब बलवान हों तो माता कि आयु दीर्घ आयु हो जाती है | इतना ध्यान रहे कि छठा और ग्यारहवें भावों के स्वामी भी बलवान होने चाहिए क्योंकि ये माता के आयु भाव हैं । यदि मंगल लग्न मैं, शनि द्वतीय मैं और चन्द्र अष्टम भाव मैं हों तो माता कि शीघ्र मृत्यु हो जाती है कारण स्पष्ट है कि शनि तथा मंगल का प्रभाव न केवल चतुर्थ ( माता) भाव पर होगा,. अपितु माता के कारक चन्द्र पर भी होगा ।

Wednesday, November 15, 2017

राघवयादवीयम्.  ( कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्"  )

राघवयादवीयम्.  ( कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्"  )

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े
तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ को
‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे
पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और
विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक।

पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ "राघवयादवीयम।"

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

विलोमम्:

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

" राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७॥

विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।

हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि  ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री  ।।

कृपया अपना थोड़ा सा कीमती वक्त निकाले और उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें की दुनिया में कहीं भी ऐसा नही पाया गया ग्रंथ है ।

ब्रह्मास्त्र

ब्रह्मास्त्र

- ब्रह्मास्त्र मंत्र माला  -

ॐ नमो भगवति चामुण्डे नरकंकगृधोलूक परिवार सहिते श्मशानप्रिये नररूधिर मांस चरू भोजन प्रिये सिद्ध विद्याधर वृन्द वन्दित चरणे ब्रह्मेश विष्णु वरूण कुबेर भैरवी भैरवप्रिये इन्द्रक्रोध विनिर्गत शरीरे द्वादशादित्य चण्डप्रभे अस्थि मुण्ड कपाल मालाभरणे शीघ्रं दक्षिण दिशि आगच्छागच्छ मानय-मानय नुद-नुद अमुकं  (अपने शत्रु का नाम लें  ) मारय-मारय, चूर्णय-चूर्णय, आवेशयावेशय त्रुट-त्रुट, त्रोटय-त्रोटय स्फुट-स्फुट स्फोटय-स्फोटय महाभूतान जृम्भय-जृम्भय ब्रह्मराक्षसान-उच्चाटयोच्चाटय भूत प्रेत पिशाचान् मूर्च्छय-मूर्च्छय मम शत्रून् उच्चाटयोच्चाटय शत्रून् चूर्णय-चूर्णय सत्यं कथय-कथय वृक्षेभ्यः सन्नाशय-सन्नाशय अर्कं स्तम्भय-स्तम्भय गरूड़ पक्षपातेन विषं निर्विषं कुरू-कुरू लीलांगालय वृक्षेभ्यः परिपातय-परिपातय शैलकाननमहीं मर्दय-मर्दय मुखं उत्पाटयोत्पाटय पात्रं पूरय-पूरय भूत भविष्यं तय्सर्वं कथय-कथय कृन्त-कृन्त दह-दह पच-पच मथ-मथ प्रमथ-प्रमथ घर्घर-घर्घर ग्रासय-ग्रासय विद्रावय – विद्रावय उच्चाटयोच्चाटय विष्णु चक्रेण वरूण पाशेन इन्द्रवज्रेण ज्वरं नाशय   नाशय प्रविदं स्फोटय-स्फोटय सर्व शत्रुन् मम वशं कुरू-कुरू पातालं पृत्यंतरिक्षं आकाशग्रहं आनयानय करालि विकरालि महाकालि रूद्रशक्ते पूर्व दिशं निरोधय-निरोधय पश्चिम दिशं स्तम्भय-स्तम्भय दक्षिण दिशं निधय-निधय उत्तर दिशं बन्धय-बन्धय ह्रां ह्रीं ॐ बंधय-बंधय ज्वालामालिनी स्तम्भिनी मोहिनी मुकुट विचित्र कुण्डल नागादि वासुकी कृतहार भूषणे मेखला चन्द्रार्कहास प्रभंजने विद्युत्स्फुरित सकाश साट्टहासे निलय-निलय हुं फट्-फट् विजृम्भित शरीरे सप्तद्वीपकृते ब्रह्माण्ड विस्तारित स्तनयुगले असिमुसल परशुतोमरक्षुरिपाशहलेषु वीरान शमय-शमय सहस्रबाहु परापरादि शक्ति विष्णु शरीरे शंकर हृदयेश्वरी बगलामुखी सर्व दुष्टान् विनाशय-विनाशय हुं फट् स्वाहा। ॐ ह्ल्रीं बगलामुखि ये केचनापकारिणः सन्ति तेषां वाचं मुखं पदं स्तम्भय-स्तम्भय जिह्वां कीलय – कीलय बुद्धिं विनाशय-विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा । ॐ ह्रीं ह्रीं हिली-हिली अमुकस्य (शत्रु का नाम लें) वाचं मुखं पदं स्तम्भय शत्रुं जिह्वां कीलय शत्रुणां दृष्टि मुष्टि गति मति दंत तालु जिह्वां बंधय-बंधय मारय-मारय शोषय-शोषय हुं फट् स्वाहा।।

इसकी विधि ओर कैसे करते है वो जान कर नही दिया है क्योंकि यह बहोत खतरनाक मंत्र है और बिना गुरु के करने में हानि हो शक्ति है उस वजह जानकारी अधूरी है तो बिना गुरु के मार्गदर्शन यह ना करे।

Saturday, November 11, 2017

कुण्डलिनी विज्ञान

कुण्डलिनी विज्ञान में मूलाधार को योनि और सहस्रार को लिंग कहा गया है। इन दोनों संयोग साधना को कामकला के रूप में निरूपित किया गया है। इसका वर्णन कतिपय स्थलों पर ऐसा प्रतीत होती है मानो यह कोई काम सेवन की चर्चा की जा रही है,पर बात ऐसी नहीं है। वर्णनों में काम क्रीड़ा एवं शृंगारिकता का काव्यमय वर्णन हो किया गया है, पर क्रिश्स प्रसंग में वैसा कुछ नहीं है। तन्त्र ग्रन्थों के उलटबांसियों की तरह ‘मैथुन’ को भी तन्त्र साधना में सम्मिलित किया गया है। यह वर्णन अलंकारिक है तथा सूक्ष्म रूप से दो मूल सत्ताओं के संयोग का संकेत देता है। शारीरिक रति कर्म से इसका सम्बन्ध किसी प्रकार नहीं जोड़ा जा सकता हैं।
कुण्डलिनी महाशक्ति मूलाधार में शिव लिंग के साथ प्रसुप्त सर्पिणी की भाँति पड़ी रहती है। जागरण के उपरान्त वह मलमूत्रों से युक्त निकृष्ट स्थान से उठाकर मस्तिष्क के सर्वोच्च स्थान पर जा विराजती है। छोटा-सा शिवलिंग मस्तिष्क में कैलाश पर्वत बन जाता है तथा छोटे से कुण्ड को मानसरोवर का रूप धारण करने का सुअवसर मिल जाता है। मूलाधार स्थित प्रसुप्त सर्पिणी जागृत होकर शिवकंठ से जा लिपटती है तथा शेषनाग के पराक्रमी रूप में दृष्टिगोचर होती है। यह कुण्डलिनी जागरण की परिणति है। सहस्रार को कल्पवृक्ष, स्वर्गलोक, अक्षय वट वृक्ष आदि के रूप में दिव्य वरदान देने वाला कहा गया है। यह सब उपमाएँ ब्रह्मरन्ध्र में निवास करने वाले ब्रह्म बीज के लिए प्रयुक्त की गयी हैं, जो अपनी अविकसित अवस्था में मात्र मन, बुद्धि के छोटे−मोटे प्रयोजनों को पूरा करता है पर जब जागरण की स्थिति में पहुँचता है तो दिव्य सामर्थ्य सम्पन्न बन जाता है।
आन्तरिक काम शक्ति को योग ग्रन्थों में महाशक्ति महाकाली के रूप में वर्णन किया गया है। एकाकी नर−नारी भौतिक जीवन में अस्त−व्यस्त रहते हैं। आन्तरिक जीवन में उभयपक्षीय विद्युत का समन्वय न होने से सर्वत्र नीरस नीरवता ही दिखायी पड़ती है, इसे दूर करके समग्र समर्थता एवं प्रफुल्लता उत्पन्न करने के लिए कुण्डलिनी साधना की जाती है। साधना विज्ञान में कुण्डलिनी साधना को ही अलंकारिक रूप में कामक्रीड़ा के शब्दों में व्यक्त किया गया है। योनि, लिंग, काम बीज, रज, वीर्य, संयोग आदि प्रयुक्त किया गये शब्दों में उसी अंतःशक्ति के जागरण की विधि−व्यवस्था सन्निहित है। सम्बन्धित उल्लेख अनेकों स्थानों पर आता है–
*तत्र स्थितो महालिंग स्वयं भुः सर्वदा सुखी। अधोमुखः क्रियावाँक्ष्य काम बीजेन न चलितः॥* –कालीकुलामृत
वहाँ, ब्रह्मरन्ध्र में वही महालिंग अवस्थित है। वह स्वयंभू और सुख स्वरूप है। इसका मुख नीचे की ओर है। यह निरन्तर क्रियाशील है। काम−बीज द्वारा चालित है।
*आत्मसंस्थंशिवं त्यक्त्वा बहिः सथंयः समर्चयेत्। हस्तस्थं पिण्डमुत्सृज् भ्रमते जीविताशया॥*
*आत्मलिंगार्चन कुर्यादनाल सयं दिने दिने। तस्यस्यात्सकला सिद्धिनाँत्र कार्याविचरण॥* – शिवसंहिता
अपने शरीर में अवस्थित शिव को त्याग कर जो बाहर−बाहर पूजते फिरते हैं।
वे हाथ के भोजन को छोड़ की इधर−इधर से प्राप्त करने के लिए भटकने वाले लोगों में से हैं।
इसी त्रिकोण विषय समाधि में अनन्त विश्व में व्याप्त होने वाली परम ज्योति प्रकट होती है वही कालाग्नि रूप है। जब योगी ध्यान, धारण, समाधि द्वारा उक्त ज्योति देखने लगता है तब उसका जन्म−मरण नहीं होता अर्थात् जीवन मुक्त हो जाता है।
मूलाधार स्थित कुण्डलिनी रूपी योनि और सहस्राररूपी लिंग का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों जब एकाकार हो जाते हैं तो दिव्य आदान−प्रदान आरम्भ हो जाता है। आत्मबल समुन्नत होता चला जाता है। उनके सम्बन्ध विच्छेद होने पर मनुष्य दीन, हीन, दुर्बल, असहाय, असमर्थ एवं असफल जीवन जीता है। कुण्डलिनी रूपी योनि और सहस्रार रूपी लिंग का संयोग मनुष्य की आन्तरिक अपूर्णता को दूर करता तथा परिपूर्ण बनाता है। साधना का उद्देश्य यही है। इसी को शिव शक्ति का संयोग तथा आत्मा का परमात्मा से मिलन कहते हैं।

Saturday, November 4, 2017

नींद कब नहीं आती

--- नींद कब नहीं आती ---

महाभारत में एक समय जब महाराज धृतराष्ट्र बहुत व्याकुल थे और उन्हें नींद नहीं आरही थी, तब उन्होंने महामंत्री विदुर को बुलवाया। कुछ समय बाद विदुर महल में महाराज के सामने पहुंच गएधृतराष्ट्र ने विदुर से कहा कि मेरा मन बहुत व्याकुल है। जब से संजय पांडवों के यहां से लौटकर आया है, तब से मेरा मन बहुत अशांत है। संजय कल सभा में सभी के सामने क्या कहेगा, यह सोच-सोचकर मन व्यथित हो रहा है। नींद नहीं आ रही है। यह सुनकर विदुर ने महाराज से महत्वपूर्ण नीति की बात कही। विदुर ने कहा जब किसी व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष दोनों के जीवन में ये चार बातें होती हैं, तब उसकी नींदउड़ जाती है और मन अशांत हो जाता है। ये चार बातें कौन-कौन सी हैं,आप भी जानिए...

पहली बात-

विदुर ने धृतराष्ट्र से
कहा यदि किसी व्यक्ति के मन में कामभाव जाग गया हो तो उसे नींद नहीं आती है। जब तक कामी व्यक्ति की काम भावना तृप्त नहीं हो जाती है, तब तक वह सो नहीं सकता है। कामभावना व्यक्ति के मन को अशांत कर देती है और कामी किसी भी कार्य को ठीक से नहीं कर पाता है। यह भावना स्त्री और पुरुष दोनों की नींद उड़ा देती है।

दूसरी बात-

जब किसी स्त्री या पुरुष की शत्रुता बहुत बलवान व्यक्ति से हो जाती है तो उसकी नींद उड़ जाती है। निर्बल और साधनहीन व्यक्ति हर पल बलवान शत्रु से बचने के उपाय सोचता रहता है।उसे हमेशा यह भय सताता है कि कहीं बलवान शत्रुकी वजह से कोई अनहोनी न हो जाए

तीसरी बात-

यदि किसी व्यक्ति का सब कुछ छिन लिया गया हो तो उसकी रातों की नींद उड़ जाती है। ऐसा इंसान न तो चैन से जी पाता है और ना ही सो पाता है। इस परिस्थिति में व्यक्ति हर पल छिनी हुई वस्तुओं को पुन:पाने की योजनाएं बनाते रहता है। जब तक वह अपनी वस्तुएं पुन: पा नहीं लेता है, तब तक उसे नींद नहीं आती है।

चौथी बात-

यदि किसी व्यक्ति की प्रवृत्ति चोरी की है जो चोरी करके ही अपने उदर की पूर्ति करता है, जिसे चोरी करने की आदत पड़ गई है, जो दूसरों का धन चुराने की योजनाएं बनाते रहता है, उसे नींद नहीं आती है। चोर हमेशा रात में चोरी करता है और दिन में इस बात से डरता है कि कहीं उसकी चोरी पकड़ी ना जाएइस वजह से उसकी नींद भी उड़ी रहती है।