Sunday, October 22, 2017

अमावस्या और पूर्णिमा का रहस्य जानिए...

अमावस्या और पूर्णिमा का रहस्य जानिए...

हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण के रहस्य को उजागर किया गया है। इसके अलावा वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण दिन और रात हैं जिनका धरती और मानव मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही माह में पड़ने वाले 2 दिन सबसे महत्वपूर्ण हैं- पूर्णिमा और अमावस्या। पूर्णिमा और अमावस्या के प्रति बहुत से लोगों में डर है। खासकर अमावस्या के प्रति ज्यादा डर है। वर्ष में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या होती हैं। सभी का अलग-अलग महत्व है।
हिन्दू पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या।
हिन्दू पंचांग की अवधारणा
यदि शुरुआत से गिनें तो 30 तिथियों के नाम निम्न हैं-पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।
अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन कि चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता। हर माह की पूर्णिमा और अमावस्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता ताकि इन दिनों व्यक्ति का ध्यान धर्म की ओर लगा रहे। लेकिन इसके पीछे आखिर रहस्य क्या है?
नकारात्मक और सकारात्मक
शक्तियां : धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां होती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक, दिन और रात, अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी।
इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण ही धरती पर भांति-भांति के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों, निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं।
हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2 अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। अच्छे लोग किसी भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य रात में ही करते हैं।
पूर्णिमा का विज्ञान :
🌞🌞🌞🌞🌞🌞 पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम ही आती है। कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर की ओर खींचता है। मानव के शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और गुण बदल जाते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्त में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित या भावुक रहता है। एक बार नहीं, प्रत्येक पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य भी उसी अनुसार बनता और बिगड़ता रहता है।
जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्ति भोजन करने के बाद नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम, भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह दी जाती है।
कुछ मुख्य पूर्णिमा :
🌞🌞🌞🌞🌞🌞कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि।
चेतावनी :
🐙🐙🐙 इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।
अमावस्या :
🌚🌚🌚🌚वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं, तब मनुष्यों में भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है।
अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। प्रेत के शरीर की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75 प्रतिशत ईथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ शरीर के निर्माण में 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75 प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो जाए तो प्रेतों का छायाचित्र लिया जा सकता है और इसी प्रकार यदि एस्ट्रल एटम सघन हो जाए तो पितरों का भी छायाचित्र लिया जा सकता है।
ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती हैं। इस दिन चन्द्रमा नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है।
धर्मग्रंथों में चन्द्रमा की 16वीं कला को 'अमा' कहा गया है। चन्द्रमंडल की 'अमा' नाम की महाकला है जिसमें चन्द्रमा की 16 कलाओं की शक्ति शामिल है। शास्त्रों में अमा के अनेक नाम आए हैं, जैसे अमावस्या, सूर्य-चन्द्र संगम, पंचदशी, अमावसी, अमावासी या अमामासी। अमावस्या के दिन चन्द्र नहीं दिखाई देता अर्थात जिसका क्षय और उदय नहीं होता है उसे अमावस्या कहा गया है, तब इसे 'कुहू अमावस्या' भी कहा जाता है। अमावस्या माह में एक बार ही आती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। अमावस्या सूर्य और चन्द्र के मिलन का काल है। इस दिन दोनों ही एक ही राशि में रहते हैं।
कुछ मुख्य अमावस्या :
🌚🌚🌚🌚🌚🌚🌚भौमवती अमावस्या, मौनी अमावस्या, शनि अमावस्या, हरियाली अमावस्या, दिवाली अमावस्या, सोमवती अमावस्या, सर्वपितृ अमावस्या।
चेतावनी :
🐙🐙🐙 इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, अमावस्या और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।

कुंडली में दूसरे भाव को ही धन भाव कहा गया है।


कुंडली में दूसरे भाव को ही धन भाव कहा गया है।

कुंडली में दूसरे भाव को ही धन भाव कहा गया है। इसके अधिपति की स्थिति संग्रह किए जाने वाले धन के बारे में संकेत देती है। कुंडली का चौथा भाव हमारे सुखमय जीवन जीने का संकेत देता है। पांचवां भाव हमारी उत्पादकता बताता है, छठे भाव से ऋणों और उत्तरदायित्वों को देखा जाएगा। सातवां भाव व्यापार में साझेदारों को देखने के लिए बताया गया है। इसके अलावा ग्यारहवां भाव आय और बारहवां भाव व्यय से संबंधित है। प्राचीन काल से ही जीवन में अर्थ के महत्व को प्रमुखता से स्वीकार किया गया। इसका असर फलित ज्योतिष में भी दिखाई देता है। केवल दूसरा भाव सक्रिय होने पर जातक के पास पैसा होता है, लेकिन आय का निश्चित स्रोत नहीं होता जबकि दूसरे और ग्यारहवें दोनों भावों में मजबूत और सक्रिय होने पर जातक के पास धन भी होता है और उस धन से अधिक धन पैदा करने की ताकत भी। ऐसे जातक को ही सही मायने में अमीर कहेंगे।
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः। स पण्डितः स श्रुतिमान गुणज्ञः।
स एवं वक्ता स च दर्शनीयः। सर्वेगुणाः कांचनमाश्रयन्ति।।
नीति का यह श्लोक आज के अर्थ-प्रधान युग का वास्तविक स्वरूप व सामाजिक चित्र प्रस्तुत करता है। आज के विश्व में धनवान की ही पूजा होती है। जिस मनुष्य के पास धन नहीं होता, वह कितना ही विद्वान हो, कितना ही चतुर हो, उसे महत्ता नहीं मिलती। इस प्रकार ऐसे बहुत से व्यक्ति मिलते हैं, जो सर्वगुण सम्पन्न हैं, परन्तु धन के बिना समाज में उनका कोई सम्मान नहीं है। अतः यह आवश्यक है कि जन्म कुंडली में धन द्योतक ग्रहों एवं भावों का पूर्ण रूपेण विवेचन किया जाये।
ज्योतिष शास्त्र में जन्म कुंडली में धन योग के लिए द्वितीय भाव, पंचम भाव, नवम भाव व एकादश भाव विचारणीय है। पंचम-एकादश धुरी का धन प्राप्ति में विशेष महत्व है। महर्षि पराशर के अनुसार जैसे भगवान विष्णु के अवतरण के समय पर उनकी शक्ति लक्ष्मी उनसे मिलती है तो संसार में उपकार की सृष्टि होती है। उसी प्रकार जब केन्द्रों के स्वामी त्रिकोणों के भावधिपतियों से संबंध बनाते हैं तो बलशाली धन योग बनाते हैं। यदि केन्द्र का स्वामी-त्रिकोण का स्वामी भी है, जिसे ज्योतिषीय भाषा में राजयोग भी कहते हैं। इसके कारक ग्रह यदि थोड़े से भी बलवान हैं तो अपनी और विशेषतया अपनी अंतर्दशा में निश्चित रूप से धन पदवी तथा मान में वृद्धि करने वाले होते हैं। पराशरीय नियम, यह भी है कि त्रिकोणाधिपति सर्वदा धन के संबंध में शुभ फल करता है। चाहे, वह नैसर्गिक पापी ग्रह शनि या मंगल ही क्यों न हो।
यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जब धनदायक ग्रह अर्थात् दृष्टि, युति और परिवर्तन द्वारा परस्पर संबंधित हो तो शास्त्रीय भाषा में ये योग महाधन योग के नाम से जाने जाते हैं। लग्नेष, धनेष, एकादशेष, धन कारक ग्रह गुरु तथा सू0 व च0 अधिष्ठित राशियों के अधिपति सभी ग्रह धन को दर्शाने वाले ग्रह हैं। इनका पारस्परिक संबंध जातक को बहुत धनी बनाता है। नवम भाव, नवमेश भाग्येश, राहु केतु तथा बुध ये सब ग्रह भी शीघ्र अचानक तथा दैवयोग द्वारा फल देते हैं। धन प्राप्ति में लग्न का भी अपना विशेष महत्व होता है। लग्नाधिपति तथा लग्न कारक की दृष्टि के कारण अथवा इनके योग से धन की बढ़ोत्तरी होती है। योग कारक ग्रह (जो कि केन्द्र के साथ-साथ त्रिकोण का भी स्वामी हो) सर्वदा धनदायक ग्रह होता है। यह ग्रह यदि धनाधिपति का शत्रु भी क्यों न हो तो भी जब धनाधिपति से संबंध स्थापित करता है तो धन को बढ़ाता है। जैसे कुंभ लग्न के लिए, यदि लाभ भाव में योग कारक ग्रह ‘शुक्र’ हो और धन भाव में (वृ0) स्वग्रही हो तो अन्य बुरे योग होते हुए भी जातक धनी होता है, क्योंकि योग कारक ‘शुक्र’ व धनकारक ‘वृ0′ व लाभाधिपति ‘वृह’ का केन्द्रीय प्रभाव है। यद्यपि ये दोनों ग्रह एक दूसरे के शुभ हैं।
दशाओं का प्रभाव----
धन कमाने या संग्रह करने में जातक की कुंडली में दशा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। द्वितीय भाव के अधिपति यानी द्वितीयेश की दशा आने पर जातक को अपने परिवार से संपत्ति प्राप्त होती है, पांचवें भाव के अधिपति यानी पंचमेश की दशा में सट्टे या लॉटरी से धन आने के योग बनते हैं। आमतौर पर देखा गया है कि यह दशा बीतने के साथ ही जातक का धन भी समाप्त हो जाता है। ग्यारहवें भाव के अधिपति यानी एकादशेश की दशा शुरू होने के साथ ही जातक की कमाई के कई जरिए खुलते हैं। ग्रह और भाव की स्थिति के अनुरूप फलों में कमी या बढ़ोतरी होती है। छठे भाव की दशा में लोन मिलना और बारहवें भाव की दशा में खर्चों में बढ़ोतरी के संकेत मिलते हैं।
शुक्र की महिमा------
किसी व्यक्ति के धनी होने का आकलन उसकी सुख सुविधाओं से किया जाता है। ऐसे में शुक्र की भूमिका उत्तरोत्तर महत्वपूर्ण होती जा रही है। किसी जातक की कुंडली में शुक्र बेहतर स्थिति में होने पर जातक सुविधा संपन्न जीवन जीता है। शुक्र ग्रह का अधिष्ठाता वैसे शुक्राचार्य को माना गया है, जो राक्षसों के गुरु थे, लेकिन उपायों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि शुक्र का संबंध लक्ष्मी से अधिक है। शुक्र के आधिपत्य में वृषभ और तुला राशियां हैं। इसी के साथ शुक्र मीन राशि में उच्च का होता है। इन तीनों राशियों में शुक्र को बेहतर माना गया है। कन्या राशि में शुक्र नीच हो जाता है, इसलिए कन्या का शुक्र अच्छे परिणाम देने वाला नहीं माना जाता।

Saturday, October 14, 2017

पेड़-पौधों के टोटके


पेड़-पौधों के टोटके

हमारे आसपास पाए जाने वाले विभिन्न पेड़-पौधों के पत्तों, फलों आदि का टोटकों के रूप में उपयोग भी हमारी सुख-
समृद्धि की वृद्धि में सहायक हो सकता है। यहां कुछ ऐसे ही सहज और सरल उपायों का उल्लेख प्रस्तुत है, जिन्हें अपना कर पाठकगण लाभ उठा सकते हैं। विल्व पत्र : अश्विनी नक्षत्र वाले दिन एक रंगवाली गाय के दूध में बेल के पत्ते डालकर वह दूघ निःसंतान स्त्री को पिलाने से उसे संतान की प्राप्ति होती है।

अपामार्ग की जड़ : अश्विनी नक्षत्र में
अपामार्ग की जड़ लाकर इसे तावीज में
रखकर किसी सभा में जाएं, सभा के लोग
वशीभूत होंगे।

नागर बेल का पत्ता : यदि घर में किसी वस्तु
की चोरी हो गई हो, तो भरणी
नक्षत्र में नागर बेल का पत्ता लाकर उस पर कत्था लगाकर व
सुपारी डालकर चोरी वाले स्थान पर रखें,
चोरी की गई वस्तु का पला चला जाएगा।

संखाहुली की जड़ : भरणी
नक्षत्र में संखाहुली की जड़ लाकर
तावीज में पहनें तो विपरीत लिंग वाले
प्राणी आपसे प्रभावित होंगे।

आक की जड़ : कोर्ट कचहरी के मामलों में
विजय हेतु आर्द्रा नक्षत्र में आक की जड़ लाकर
तावीज की तरह गले में बांधें।

दूधी की जड़ : सुख की
प्राप्ति के लिए पुनर्वसु नक्षत्र में दूधी
की जड़ लाकर शरीर में लगाएं।

शंख पुष्पी : पुष्य नक्षत्र में शंखपुष्पी
लाकर चांदी की डिविया में रखकर
तिजोरी में रखें, धन की वृद्धि
होगी।

बरगद का पत्ता : अश्लेषा नक्षत्र में बरगद का पत्ता लाकर अन्न
भंडार में रखें, भंडार भरा रहेगा।

धतूरे की जड़ : अश्लेषा नक्षत्र में धतूरे
की जड़ लाकर घर में रखें, घर में सर्प
नहीं आएगा और आएगा भी तो कोई
नुकसान नहीं पहुंचाएगा।
बेहड़े का पत्ता : पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में बेहड़े का
पत्ता लाकर घर में रखें, घर ऊपरी हवाओं के प्रभाव से
मुक्त रहेगा।

नीबू की जड़ : उत्तरा फाल्गुनी
नक्षत्र में नीबू की जड़ लाकर उसे गाय के
दूध में मिलाकर निःसंतान स्त्री को पिलाएं, उसे पुत्र
की प्राप्ति होगी।

चंपा की जड़ : हस्त नक्षत्र में चंपा की
जड़ लाकर बच्चे के गले में बांधें, बच्चे की प्रेत बाधा
तथा नजर दोष से रक्षा होगी।
चमेली की जड़ : अनुराधा नक्षत्र में
चमेली की जड़ गले में बांधें, शत्रु
भी मित्र हो जाएंगे।

काले एरंड की जड़ : श्रवण नक्षत्र में एरंड
की जड़ लाकर निःसंतान स्त्री के गले में
बांधें, उसे संतान की प्राप्ति होगी।
तुलसी की जड़ : पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में
तुलसी की जड़ लाकर मस्तिष्क पर रखें,
अग्निभय से मुक्ति मिलेगी।

Sunday, October 8, 2017

बारहवां घर

बारहवां घर

बारहवें घर को भारतीय वैदिक ज्योतिष में व्यय स्थान अथवा व्यय भाव कहा जाता है तथा कुंडली का यह घर मुख्य रुप से कुंडली धारक के द्वारा अपने जीवन काल में खर्च किए जाने वाले धन के बारे में बताता है तथा साथ ही साथ कुंडली का यह घर यह संकेत भी देता है कि कुंडली धारक के द्वारा खर्च किए जाने वाला धन आम तौर पर किस प्रकार के कार्यों में लगेगा।
कुंडली के बारहवें घर के बलवान होने की स्थिति में आम तौर पर कुंडली धारक की कमाई और व्यय में उचित तालमेल होता है तथा कुंडली धारक अपनी कमाई के अनुसार ही धन को खर्च करने वाला होता है, जिसके कारण उसे अपने जीवन में धन को नियंत्रित करने में अधिक कठिनाई नहीं होती जबकि कुंडली के बारहवें घर के बलहीन होने की स्थिति में कुंडली धारक का खर्च आम तौर पर उसकी कमाई से अधिक होता है तथा इस कारण उसे अपने जीवन में बहुत बार धन की तंगी का सामना करना पड़ता है।
कुंडली के बारहवें घर पर शुभ या अशुभ ग्रहों के प्रभाव को देखकर यह भी पता चल सकता है कि कुंडली धारक का धन आम तौर पर किस प्रकार के कार्यों में खर्च होगा। उदाहरण के लिए कुंडली के बारहवें घर पर किसी शुभ ग्रह का प्रभाव होने पर कुंडली धारक का धन आम तौर पर अच्छे कामों में ही खर्च होगा जबकि कुंडली के बारहवें घर पर किसी अशुभ ग्रह का प्रभाव होने पर कुंडली धारक का धन आम तौर पर व्यर्थ के कामों में ही खर्च होता रहता है। कुंडली के बारहवें घर पर शुभ गुरू का प्रबल प्रभाव कुंडली धारक को धार्मिक कार्यों में धन लगाने के लिए प्रेरित करता है जबकि कुंडली के बारहवें घर पर अशुभ राहु अथवा शनि का प्रबल प्रभाव कुंडली धारक को जुआ खेलने, अत्याधिक शराब पीने तथा ऐसी ही अन्य बुरी लतों पर धन खराब करने के लिए प्रेरित करता है।
कुंडली का बारहवां घर कुंडली धारक की विदेश यात्राओं के बारे में भी बताता है तथा किसी दण्ड के फलस्वरूप मिलने वाला देश निकाला भी कुंडली के इसी घर से देखा जाता है।
किसी व्यक्ति का अपने परिवार के सदस्यों से दूर रहना भी कुंडली के इस घर से पता चल सकता है। कुंडली धारक के जीवन के किसी विशेष समय में उसके लंबी अवधि के लिए अस्पताल जाने अथवा कारावास में बंद होने जैसे विषयों के बारे में जानने के लिए भी कुंडली के इस घर को देखा जाता है।
कुंडली का यह घर कुंडली धारक के जीवन के अंतिम समय के बारे में भी बताता है तथा कुंडली के इस घर से कुंडली धारक की मृत्यु के कारण का पता भी चल सकता है।
बारहवां घर व्यक्ति के जीवन में मिलने वाले बिस्तर के सुख के बारे में भी बताता है तथा यह घर कुंडली धारक की निद्रा (नींद) के बारे में भी बताता है।
कुंडली के इस घर पर किन्ही विशेष बुरे ग्रहों का प्रभाव कुंडली धारक को निद्रा से संबंधित रोग या परेशानियों से पीड़ित कर सकता है तथा कुंडली धारक के वैवाहिक जीवन में भी समस्याएं पैदा कर सकता है। यह समस्याएं आम तौर पर रात को सोने के समय बिस्तर पर होने वाली बातचीत से शुरू होती हैं जो बढ़ते-बढ़ते विवाद का रूप ले लेती हैं तथा व्यक्ति के वैवाहिक जीवन में परेशानियां पैदा कर देती हैं। ऐसे लोगों के संबंध सामान्य तौर पर अपने पति या पत्नी के साथ अच्छे होने के बावजूद भी सोने के समय किसी व्यर्थ की बात को लेकर पति या पत्नी के साथ विवाद हो जाता है जिससे इनको सुख की नींद लेने में प्रॉब्लम होता है

कुंडली और जीवनसाथी

कुंडली और जीवनसाथी .

जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में चन्द्र, बुध, गुरु
या शुक्र उपस्थित होता है, उसे धनवान पति प्राप्त
होता है।
जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में गुरु उपस्थित हो
तो उसे सुंदर, धनवान, बुद्धिमान पति व श्रेष्ठ संतान
मिलती है।भाग्य भाव में या सप्तम, अष्टम और नवम
भाव में शुभ ग्रह होने से ससुराल धनाढच्य एवं वैभवपूर्ण
होती है।
कन्या की जन्मकुंडली में चन्द्र से सप्तम स्थान पर शुभ
ग्रह बुध, गुरु, शुक्र आदि में से कोई उपस्थित हो तो
उसका पति राज्य में उच्च पद प्राप्त करता है तथा उसे
सुख व वैभव प्राप्त होता है। कुंडली के लग्न में चंद्र हो
तो ऐसी कन्या पति को प्रिय होती है और चंद्र व
शुक्र की युति हो तो कन्या ससुराल में अपार संपत्ति
एवं समस्त भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त करती है।
कन्या की कुंडली में वृषभ, कन्या, तुला लग्न हो तो
वह प्रशंसा पाकर पति एवं धनवान ससुराल में
प्रतिष्ठा प्राप्त करती है।कन्या की कुंडली में जितने
अधिक शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध या चन्द्र लग्न को देखते हैं
या सप्तम भाव को देखते हैं, उसे उतना धनवान एवं
प्रतिष्ठित परिवार एवं पति प्राप्त होता है।
कन्या की जन्मकुंडली में लग्न एवं ग्रहों की स्थिति
की गणनानुसार त्रिशांश कुंडली का निर्माण करना
चाहिए तथा देखना चाहिए कि यदि कन्या का जन्म
मिथुन या कन्या लग्न में हुआ है तथा लग्नेश गुरु या शुक्र
के त्रिशांश में है तो उसके पति के पास अटूट संपत्ति
होती है तथा कन्या सदैव ही सुंदर वस्त्र एवं आभूषण
धारण करने वाली होती है।
कुंडली के सप्तम भाव में शुक्र उपस्थित होकर अपने
नवांश अर्थात वृषभ या तुला के नवांश में हो तो पति
धनाढच्य होता है।सप्तम भाव में बुध होने से पति
विद्वान, गुणवान, धनवान होता है, गुरु होने से
दीर्घायु, राजा के संपत्ति वाला एवं गुणी तथा शुक्र
या चंद्र हो तो ससुराल धनवान एवं वैभवशाली होता
है। एकादश भाव में वृष, तुला राशि हो या इस भाव में
चन्द्र, बुध या शुक्र हो तो ससुराल धनाढच्य और पति
सौम्य व विद्वान होता है।हर पुरुष सुंदर पत्नी और
स्त्री धनवान पति की कामना करती है।
यदि जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में सूर्य हो
तो उसकी पत्नी शिक्षित, सुशील, सुंदर एवं कार्यो में
दक्ष होती है, किंतु ऐसी स्थिति में सप्तम भाव पर
यदि किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो दाम्पत्य
जीवन में कलह और सुखों का अभाव होता है।
जातक की जन्मकुंडली में स्वग्रही, उच्च या मित्र
क्षेत्री चंद्र हो तो जातक का दाम्पत्य जीवन सुखी
रहता है तथा उसे सुंदर, सुशील, भावुक, गौरवर्ण एवं सघन
केश राशि वाली रमणी पत्नी प्राप्त होती है। सप्तम
भाव में क्षीण चंद्र दाम्पत्य जीवन में न्यूनता उत्पन्न
करता है।
जातक की कुंडली में सप्तमेश केंद्र में उपस्थित हो तथा
उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि होती है, तभी जातक को
गुणवान, सुंदर एवं सुशील पत्नी प्राप्त होती है।पुरुष
जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में शुभ ग्रह बुध,
गुरु या शुक्र उपस्थित हो तो ऐसा जातक
सौभाग्यशाली होता है तथा उसकी पत्नी सुंदर,
सुशिक्षित होती है और कला, नाटच्य, संगीत, लेखन,
संपादन में प्रसिद्धि प्राप्त करती है। ऐसी पत्नी
सलाहकार, दयालु, धार्मिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में
रुचि रखती है।