Sunday, October 22, 2017

कुंडली में दूसरे भाव को ही धन भाव कहा गया है।


कुंडली में दूसरे भाव को ही धन भाव कहा गया है।

कुंडली में दूसरे भाव को ही धन भाव कहा गया है। इसके अधिपति की स्थिति संग्रह किए जाने वाले धन के बारे में संकेत देती है। कुंडली का चौथा भाव हमारे सुखमय जीवन जीने का संकेत देता है। पांचवां भाव हमारी उत्पादकता बताता है, छठे भाव से ऋणों और उत्तरदायित्वों को देखा जाएगा। सातवां भाव व्यापार में साझेदारों को देखने के लिए बताया गया है। इसके अलावा ग्यारहवां भाव आय और बारहवां भाव व्यय से संबंधित है। प्राचीन काल से ही जीवन में अर्थ के महत्व को प्रमुखता से स्वीकार किया गया। इसका असर फलित ज्योतिष में भी दिखाई देता है। केवल दूसरा भाव सक्रिय होने पर जातक के पास पैसा होता है, लेकिन आय का निश्चित स्रोत नहीं होता जबकि दूसरे और ग्यारहवें दोनों भावों में मजबूत और सक्रिय होने पर जातक के पास धन भी होता है और उस धन से अधिक धन पैदा करने की ताकत भी। ऐसे जातक को ही सही मायने में अमीर कहेंगे।
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः। स पण्डितः स श्रुतिमान गुणज्ञः।
स एवं वक्ता स च दर्शनीयः। सर्वेगुणाः कांचनमाश्रयन्ति।।
नीति का यह श्लोक आज के अर्थ-प्रधान युग का वास्तविक स्वरूप व सामाजिक चित्र प्रस्तुत करता है। आज के विश्व में धनवान की ही पूजा होती है। जिस मनुष्य के पास धन नहीं होता, वह कितना ही विद्वान हो, कितना ही चतुर हो, उसे महत्ता नहीं मिलती। इस प्रकार ऐसे बहुत से व्यक्ति मिलते हैं, जो सर्वगुण सम्पन्न हैं, परन्तु धन के बिना समाज में उनका कोई सम्मान नहीं है। अतः यह आवश्यक है कि जन्म कुंडली में धन द्योतक ग्रहों एवं भावों का पूर्ण रूपेण विवेचन किया जाये।
ज्योतिष शास्त्र में जन्म कुंडली में धन योग के लिए द्वितीय भाव, पंचम भाव, नवम भाव व एकादश भाव विचारणीय है। पंचम-एकादश धुरी का धन प्राप्ति में विशेष महत्व है। महर्षि पराशर के अनुसार जैसे भगवान विष्णु के अवतरण के समय पर उनकी शक्ति लक्ष्मी उनसे मिलती है तो संसार में उपकार की सृष्टि होती है। उसी प्रकार जब केन्द्रों के स्वामी त्रिकोणों के भावधिपतियों से संबंध बनाते हैं तो बलशाली धन योग बनाते हैं। यदि केन्द्र का स्वामी-त्रिकोण का स्वामी भी है, जिसे ज्योतिषीय भाषा में राजयोग भी कहते हैं। इसके कारक ग्रह यदि थोड़े से भी बलवान हैं तो अपनी और विशेषतया अपनी अंतर्दशा में निश्चित रूप से धन पदवी तथा मान में वृद्धि करने वाले होते हैं। पराशरीय नियम, यह भी है कि त्रिकोणाधिपति सर्वदा धन के संबंध में शुभ फल करता है। चाहे, वह नैसर्गिक पापी ग्रह शनि या मंगल ही क्यों न हो।
यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जब धनदायक ग्रह अर्थात् दृष्टि, युति और परिवर्तन द्वारा परस्पर संबंधित हो तो शास्त्रीय भाषा में ये योग महाधन योग के नाम से जाने जाते हैं। लग्नेष, धनेष, एकादशेष, धन कारक ग्रह गुरु तथा सू0 व च0 अधिष्ठित राशियों के अधिपति सभी ग्रह धन को दर्शाने वाले ग्रह हैं। इनका पारस्परिक संबंध जातक को बहुत धनी बनाता है। नवम भाव, नवमेश भाग्येश, राहु केतु तथा बुध ये सब ग्रह भी शीघ्र अचानक तथा दैवयोग द्वारा फल देते हैं। धन प्राप्ति में लग्न का भी अपना विशेष महत्व होता है। लग्नाधिपति तथा लग्न कारक की दृष्टि के कारण अथवा इनके योग से धन की बढ़ोत्तरी होती है। योग कारक ग्रह (जो कि केन्द्र के साथ-साथ त्रिकोण का भी स्वामी हो) सर्वदा धनदायक ग्रह होता है। यह ग्रह यदि धनाधिपति का शत्रु भी क्यों न हो तो भी जब धनाधिपति से संबंध स्थापित करता है तो धन को बढ़ाता है। जैसे कुंभ लग्न के लिए, यदि लाभ भाव में योग कारक ग्रह ‘शुक्र’ हो और धन भाव में (वृ0) स्वग्रही हो तो अन्य बुरे योग होते हुए भी जातक धनी होता है, क्योंकि योग कारक ‘शुक्र’ व धनकारक ‘वृ0′ व लाभाधिपति ‘वृह’ का केन्द्रीय प्रभाव है। यद्यपि ये दोनों ग्रह एक दूसरे के शुभ हैं।
दशाओं का प्रभाव----
धन कमाने या संग्रह करने में जातक की कुंडली में दशा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। द्वितीय भाव के अधिपति यानी द्वितीयेश की दशा आने पर जातक को अपने परिवार से संपत्ति प्राप्त होती है, पांचवें भाव के अधिपति यानी पंचमेश की दशा में सट्टे या लॉटरी से धन आने के योग बनते हैं। आमतौर पर देखा गया है कि यह दशा बीतने के साथ ही जातक का धन भी समाप्त हो जाता है। ग्यारहवें भाव के अधिपति यानी एकादशेश की दशा शुरू होने के साथ ही जातक की कमाई के कई जरिए खुलते हैं। ग्रह और भाव की स्थिति के अनुरूप फलों में कमी या बढ़ोतरी होती है। छठे भाव की दशा में लोन मिलना और बारहवें भाव की दशा में खर्चों में बढ़ोतरी के संकेत मिलते हैं।
शुक्र की महिमा------
किसी व्यक्ति के धनी होने का आकलन उसकी सुख सुविधाओं से किया जाता है। ऐसे में शुक्र की भूमिका उत्तरोत्तर महत्वपूर्ण होती जा रही है। किसी जातक की कुंडली में शुक्र बेहतर स्थिति में होने पर जातक सुविधा संपन्न जीवन जीता है। शुक्र ग्रह का अधिष्ठाता वैसे शुक्राचार्य को माना गया है, जो राक्षसों के गुरु थे, लेकिन उपायों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि शुक्र का संबंध लक्ष्मी से अधिक है। शुक्र के आधिपत्य में वृषभ और तुला राशियां हैं। इसी के साथ शुक्र मीन राशि में उच्च का होता है। इन तीनों राशियों में शुक्र को बेहतर माना गया है। कन्या राशि में शुक्र नीच हो जाता है, इसलिए कन्या का शुक्र अच्छे परिणाम देने वाला नहीं माना जाता।

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